ईसबगोल के खेत की तैयारी, फायदे एवं व्यापारिक लाभ।

परिचय:- ईसबगोल जिसे अंग्रेजी में प्लांटैगो ओवेटा कहा जाता है, एक झाड़ीनुमा औषधीय फसल है जिसका इस्तेमाल रंग-रोगन, आइस्क्रीम और अन्य चिकने पदार्थों को बनाने में किया जाता है। ‘इसबगोल’ नाम एक फारसी शब्द से निकला है जिसका मतलब होता है घोड़े की काना और इसकी पत्तियाँ कुछ वैसा ही दिखने में लगती है जिस वजह से इसे यह नाम दिया गया है। इसका उत्पत्तिस्थान मिस्र तथा ईरान है लेकिन अब इसकी खेती भारत, मालवा और सिंध में भी की जाने लगी है।

भारत में इसकी खेती गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब आदि में होती है। भारत में प्रतिवर्ष 120 करोड़ के मूल्य का ईसबगोल निर्यात हो रहा है। यह 1 मीटर ऊँचे पौधे, पतली डालियाँ पर लंबे लेकिन कम चौड़े पत्ते लगते हैं बिलकुल धान के पत्तों के जैसे, इसके सर पर बालियाँ लगती हैं जिनमें बीज होते हैं।

किस्मे:- ईसबगोल के कई तरह की किस्में है जिसमे से, जवाहर ईसबगोल 4 (13-15 क्विंटल प्रति हेक्टर फसल देने वाली), गुजरात ईसबगोल 2 (9-10 क्विंटल प्रति हेक्टर फसल देने वाली), हरियाणा ईसबगोल 5 (10-12 क्विंटल प्रति हेक्टर फसल देने वाली) कुछ प्रमुख किस्में है। इसके अलावा अन्य किस्मों में हरियाणा ईसबगोल – 2, गुजरात ईसबगोल 1, निहारिका, ट्राबे सलेक्शन 1 से 10 आदि भी है।

फायदे:- इसके बीज का छिलका कब्ज, अतिसार आदि अनेक प्रकार के रोगों में उपयोगी बताया गया है। इसके बीज का छिलका जिसको भुसी कहते है, पानी सोखने की क्षमता रखता है जिस वजह से यह पेट की सफाई , अल्सर, दस्त आव पेचिस, कब्जीयत, बवासीर, जैसी शारीरिक बीमारियों के उपचार में मदद करता है। यह साइलियम का एक सामान्य स्रोत है जो एक प्रकार का आहार फाइबर होता है। इसके यही फायदो के वजह से यह एक बहुत ही महत्व्यपूर्ण उत्पादन है जिसका देश विदेश में बहुत मांग है।

ईसबगोल जिसे अंग्रेजी में प्लांटैगो ओवेटा कहा जाता है, एक झाड़ीनुमा औषधीय फसल है जिसका इस्तेमाल रंग-रोगन, आइस्क्रीम और अन्य चिकने पदार्थों को बनाने में किया जाता है। 'इसबगोल' नाम एक फारसी शब्द से निकला है जिसका मतलब होता है घोड़े की काना और इसकी पत्तियाँ कुछ वैसा ही दिखने में लगता है जिस वजह से इसे यह नाम दिया गया है। इसका उत्पत्तिस्थान मिस्र तथा ईरान है लेकिन अब इसकी खेती भारत, मालवा और सिंध में भी की जाने लगी है।
ईसबगोल की खेती

जलवायु:- इसकी खेती करने के लिए ठंडी एवं शुष्क जलवायु उपयुक्त होती है। इसके अंकुरण के लिए 20°-25° सेल्सियस तापमान और फसल परिपक्वता के समय 30°-35° सेल्सियस तापमान होना चाहिए। फसल के पकने के समय वर्षा और ओस फसल को नुकसान पंहुचा देता है और हो सकता है की फसल पूरी तरह से खत्म हो जाये इसीलिये इस बात का ध्यान दे।

मिट्टी:- ईसबगोल की खेती अच्छे जल निकास वाली दोमट या बलुई दोमट मिट्टी जिसका पी-एच मान 7-8 हो, उपयुक्त होता है।

खेत की तैयारी:- खेत की तैयारी करने के लिए सबसे पहले उसे 2 बार आडी खडी जुताई, 1 बार बखर चला कर और पाटा चलाकर मिटटी भुरभुरी समतल कर लेना चाहिए। इसके बाद खेत में जैविक फफंदी नाशक ट्राइकोडर्मा विरिडी की 2.5 किलो प्रति हेक्टर की दर से मिला दे। 15-20 टन प्रति हेक्टर गोबर की खाद या वर्मीकम्पोस में मिला दे। 10-15 किलो नत्रजन , 40 किलो स्फुर एवं 20 किलो पोटाश प्रति हेक्टर बुवाई के समय डालें।

नत्रजन की 10-15 किलो प्रति हेक्टर बुवाई के 40 दिन बाद छिटकाव कर डालें। खेत के ढलान एवं सिंचाई की सुविधानुसार, 8-12 मीटर लम्बा व 3 मीटर चैडा क्यारियां बना लें। इसके बाद खेत में जल निकासी प्रबंध भी कर दे।

बुवाई:- ईसबगोल की बुवाई अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के द्वितीय सप्ताह तक करने से फसल अच्छी आती है वहीं दिसंबर तक बोआई करने पर उपज में भारी कमी आ जाती हैं। प्रति हेक्टर की दर से बडे आकार का, रोग रहित 4 किलो बीज की खेती के लिए उपयुक्त होता है। बीज को 5 ग्राम प्रति किलो मैटालैक्जिल 35 एस. डी. की से उपचार करने के बाद ही बुआई करे। ज्यादा बीज इस्तेमाल करने से मदुरोमिल आसिता का प्रकोप बढ जाता हैं जिससे फसल पर प्रभाव पड़ता है।

खेत में ईसबगोल के बीज को छिड़क के बोया जाता है, लेकिन इस तरीके से अंतः शस्य में परेशानी होती है इसलिए किसान इसकी बुवाई कतारों में करते है। इसके लिए 2 कतारों के बीच 30 सेंटीमीटर दुरी और 2 पौधों क बिच 5 सेंटीमीटर की दुरी रखा जाता है। बीज की गहराई 2-3 सेंटीमीटर ज्यादा नहीं रखना चाहिए।

सिंचाई:- पहली सिंचाई बुआई के तुरन्त बाद करें जिससे बीज अंकुरण हो सके। अंकुरण कमज़ोर होने पर 5-6 दिन बाद फिर से सिंचाई कर दे। इसके बाद महीने में एक बार (30 दिन में) सिंचाई काफी होता है। फूल-दाना आने के बाद स्प्रिकंलर से सिचाई ना करें। सिंचाई धीमी गति से करें।

रोग और रोकथाम:- सिंचाई के बाद खरपतवार और रोगों का प्रकोप बढ जाता हैं जिसको रोकने के लिए 20-25 दिन बाद एक बार निंदाई-गुडाई कर देना चाहिए। इस फसल में रासायनिक नींदा नियंत्रण के लिए 500 लीटर पानी में सल्फोसल्फुरोन की 25 ग्राम या आइसोप्रोटूरोंन की 500-750 ग्राम सक्रिय तत्व की घोलकर बोनी के 20 दिन पर छिडक दे।

उपज और कटाई:- उन्नत तकनीक से खेती करने पर 15-16 क्विंटल प्रति हेक्टर उपज प्राप्त किया जा सकता है। जब 110-120 दिन में फसल पक जाये और पौधों की ऊपरी पत्तियां पीली और नीचे की पत्तियां सूख जाने पर फसल की कटाई कर, बालियों को हथेली में मसल कर दाने निकाल लेना चाहिए। कटाई सुबह के समय नहीं तो शाम के समय कटाई करने पर दाने झडने की समस्या हो सकती है जिससे उपज कम हो सकता है।

फसलबाज़ार

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