चने की खेती, तथा इसके व्यापारिक महत्व।

हिमाचल प्रदेश:- पी बी जी- 1, डी सी पी- 92-3, सम्राट, बी जी एम- 549 और फुलेजी 9425-9 आदि प्रमुख है।

परिचय:- चने की खेती हमारे देश में दलहनी फसलों में अपना प्रमुख स्थान रखती है। भारत विश्व का सबसे बड़ा चना उत्पादक देश है। क्षेत्रफल और उत्पादन दोनो ही दृष्टि में दलहनी फसलों में चने का मुख्य स्थान है। पूरे भारत में चना रबी फसल के रूप में उगाया जाता है। चना उत्पादन की नई उन्नत तकनीक व उन्नतशील किस्मों का उपयोग किसानों का उत्पादन बढ़ा सकते हैं ।

जलवायु:- चने की खेती बारानी दशाओं में अधिक की जाती है। असिंचित, तथा सिंचित दोनो दशा में चने की खेती की जाती है। लगभग 78 प्रतिशत असिंचित तथा 22 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र में इसकी खेती की जाती है। चने के अंकुरण के लिए कुछ उच्च तापक्रम की आवश्यकता होती है। पौधे की उचित वृद्धि के लिए साधारत्या ठन्डे मौसम की आवश्यकता होती है। पौधों को पकने के लिए क्रमिक रूप से बढ़ते हुए उच्च तापमान की आवश्यकता होती है। साधारण रूप से चना को बोवाई से कटाई के दौरान 27 से 35 सेंटीग्रेड तापमान की आवश्यकता होती है। यदि मानसून की वर्षा प्रभावी रूप से सितम्बर के अंत में या अक्टूम्बर के प्रथम सप्ताह में हो जाती है, तब बारानी क्षेत्रों में चना की भरपूर फसल मिलती है।

चने की खेती बारानी दशाओं में अधिक की जाती है। असिंचित, तथा सिंचित दोनो दशा में चने की खेती की जाती है। लगभग 78 प्रतिशत असिंचित तथा 22 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र में इसकी खेती की जाती है।
चना

भूमि:- चने की खेती बलुई , दोमट तथा मटियार भूमि में की जा सकती है। चने की खेती के लिए दोमट या भारी दोमट मार एवं मडुआ, पड़आ, कछारी भूमि जहाँ जल निकास की व्यस्था  वाली भूमि होनी चाहिए। दक्षिण भारत में, मटियार दोमट तथा काली मिट्टी में चना की खेती की जाती है। हल्की ढलान वाले खेतोँ में चना की फसल अच्छी होती है। ढेलेदार मिट्टी में देशी चना की भरपूर फसल ली जा सकती है। इसके लिए मृदा का पी एच मान 6 से 7.5 उपयुक्त रहता है।

खेत की तैयारी:- चने की खेती के लिए प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल  से करनी चाहिये। इसके पश्चात् एक क्रास जुताई  करके पाटा लगाकर भूमि समतल कर देनी चाहिये। फसल को दीमक  से बचाने के लिए आखरी जुताई के  मिथाइल पैराथियोन या एन्डोसल्फॉन  25 kg प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में अच्छी प्रकार मिला देनी चाहिये।

फसल चक्र:- भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने एवं फसल से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए  फसल चक्र की विशेष भूमिका होती है। असिंचित क्षेत्र में पड़त-चना, पड़त-सरसों  फसल चक्र अपनाये जा सकते है।

चने की अनुमोदित किस्में।

मध्य प्रदेश:- जे जी- 74, 315, 22, 16, 130, पूसा- 391, विश्वास, विजय, विशाल, जे जी जी- 1, जवाहर ग्राम काबुली- 1, बी जी डी- 128 आदि प्रमुख है।

राजस्थान:- हरियाणा चना- 1, डी सी पी- 92-3, पूसा- 372, पूसा- 329, पूसा- 362, उदय, सम्राट, जी एन जी- 1581, आर एस जी- 963, राजास, आर एस जी- 931, जी एन जी- 143, पी बी जी- 1 और जी एन जी- 663 आदि प्रमुख है।

हरियाणा:- डी सी पी- 92-3, हरियाणा चना- 1, हरियाणा काबुली चना- 1, पूसा- 372, पूसा- 362, पी बी जी- 1, उदय, करनाल चना- 1, सम्राट, वरदान, जी पी एफ- 2, चमत्कार, आर एस जी- 888, हरियाणा काबुली चना- 2, बीजीएम- 547, फुलेजी- 9425-9 और जी एन जी- 1581 आदि प्रमुख है।

पंजाब:- पूसा- 256, पी बी जी- 5, हरियाणा चना- 1, डी सी पी- 92-3, पूसा- 372, पूसा- 329, पूसा- 362, सम्राट, वरदान, जी पी एफ- 2, पूसा चमत्कार , पी बी जी- 3, आर एस जी- 963, राजास और आर जी- 931 आदि प्रमुख है।

उत्तर प्रदेश:- डी सी पी- 92-3, के डब्लू आर- 108, पूसा- 256, पूसा- 372, वरदान, जे जी- 315, उदय, आलोक विश्वास, पूसा- 391, सम्राट, जी पी एफ- 2, विजय, पूसा काबुली- 1003, गुजरात ग्राम- 4 आदि प्रमुख है।

बिहार:- पूसा- 372, पूसा- 256, पूसा काबुली- 1003, उदय, के डब्लू आर- 108, गुजरात ग्राम- 4 और आर ए यू- 52 आदि प्रमुख है।

छतीसगढ़:- जे जी- 315, जे जी- 16, विजय, वैभव, जवाहर ग्राम काबुली- 1, बी जी- 372, पूसा- 391, बी जी- 072 और आई सी सी वी- 10 आदि प्रमुख है।

गुजरात:- पूसा- 372, पूसा- 391, विश्वास, जे जी- 16, विकास, विजय, विशाल धारवाड़ प्रगति, गुजरात ग्राम- 1, गुजरात ग्राम- 2, जवाहर ग्राम काबुली- 1, आई पी सी के- 2009-29 और आई पी सी के- 2004-29 आदि प्रमुख है।

महाराष्ट्र:- पूसा- 372, विजय, जे जी- 16, विशाल, पूसा- 391, विश्वास  प्रमुख है।

झारखंड:- पूसा- 372, पूसा- 256, पूसा काबुली- 1003, उदय, के डब्लू आर- 108 और गुजरात ग्राम- 4 आदि प्रमुख है।

उत्तराखंड:- पन्त जी- 186, डी सी पी- 92-3, सम्राट, के डब्लू आर- 108 और  फुलेजी- 9425-9 आदि प्रमुख है।

हिमाचल प्रदेश:- पी बी जी- 1, डी सी पी- 92-3, सम्राट, बी जी एम- 549 और फुलेजी 9425-9 आदि प्रमुख है।

आंध्र प्रदेश:- भारती, जे जी- 11, फुलेजी- 95311 और एम एन के- 1 आदि प्रमुख है।

असम:- जे जी:- 73, उदय , के डब्लू आर- 108 और पूसा 372 आदि प्रमुख है।

जम्मू और कश्मीर:- डी सी पी- 92-3, सम्राट, पी बी जी- 1, पूसा चमत्कार , बी जी एम- 547 और फुलेजी 9425-9 आदि प्रमुख है।

कर्नाटक:- जे जी- 11, अन्नेगिरी- 1, चाफा, भारती  फुलेजी- 9531, स्वेता ,के और एम एन के- 1 आदि प्रमुख है।

मणीपुर:- जे जी- 74, पूसा- 372 और बी जी- 253 आदि प्रमुख है।

मेघालय:- जे जी- 74, पूसा- 372 और बी जी- 256 आदि प्रमुख है।

ओडिशा:- पूसा- 391, जे जी- 11, फुलेजी- 95311 और आई सी सी वी- 10 आदि प्रमुख है।

तमिलनाडू:- आई सी सी वी- 10, पूसा- 372 और बी जी- 256 प्रमुख है।

पश्चिम बंगाल:- जे जी- 74, गुजरात ग्राम- 4, के डब्लू आर- 108, पूसा- 256, महामाया- 1 और महामाया 2 आदि प्रमुख है।

उत्तर भारत के असिंचित क्षेत्रों में चना की बुवाई अक्टूबर के दूसरे पखवाड़े तथा सिंचित क्षेत्रों में नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में करनी चाहिए।  देश के मध्य भाग में अक्टूबर का प्रथम तथा दक्षिणी राज्यों में सितम्बर के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर का प्रथम सप्ताह चना की बुवाई के लिए उपयुक्त है।
चने की खेती

बुवाई का समय।

उत्तर भारत के असिंचित क्षेत्रों में चना की बुवाई अक्टूबर के दूसरे पखवाड़े तथा सिंचित क्षेत्रों में नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में करनी चाहिए। देश के मध्य भाग में अक्टूबर का प्रथम तथा दक्षिणी राज्यों में सितम्बर के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर का प्रथम सप्ताह चना की बुवाई के लिए उपयुक्त है।

बीज दर:- चने के बीज की मात्रा दानों के आकार, बुवाई का समय एवं बुवाई विधि पर निर्भर करती है। बड़े दानों वाले प्रजातियों (काबुली चना) का 80 से 90 kg प्रति हेक्टेयर। छोटे दानों वाली प्रजातियों का 80 किलोग्राम । सिंचित क्षेत्र के लिए छोटे दाने का 60 किलोग्राम बीज की मात्रा प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होती है। देरी से बुआई की स्थिति में 20 से 25 प्रतिशत अधिक बीज का उपयोग करें। फसल से अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए खेत में प्रति इकाई पौधों की उचित संख्या होना बहुत आवश्यक है।

बीज उपचार।

चने की फसल को कीट एवं बीमारियों के प्रकोप से बचाने के लिए बीज को उपचारित करके ही बुवाई करनी चाहिये। बीज को उपचारित करते समय ध्यान रखना चाहिये कि सर्वप्रथम उसे फफूंदनाशी, फिर कीटनाशी तथा अन्त में राजोबियम कल्चर से उपचारित करें।

बीमारियां एवं उपचार:- जड गलन व उखटा रोग की रोकथाम के लिए बीज को कार्बेन्डाजिम या मैन्कोजेब या थाइरम की 1.5 से 2 ग्राम मात्रा द्वारा प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करें। 

दीमक एवं अन्य भूमिगत कीटों की रोकथाम हेतु क्लोरोपाइरीफॉस 20 ई सी या एन्डोसल्फान 35 ई सी की 8 मिलीलीटर मात्रा प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये।

अन्त में बीज को राइजोबियम कल्चर के तीन एवं फास्फोरस घुलनशील जीवाणु के तीन पैकेटों द्वारा एक हैक्टेयर क्षेत्र के लिए आवश्यक बीज की मात्रा को उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये।उपचारित बीज को छाया में सूखाकर शीघ्र बुवाई कर देनी चाहिये।

चने की बुवाई की विधि।

 बारानी फसल के लिए बीज की गहराई 7 से 10 सेंटीमीटर और सिंचित क्षेत्र के लिए बीज की बुवाई 5 से 7 सेंटीमीटर गहराई पर करनी चाहिये। फसल की बुवाई पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से 45 सेंटीमीटर रखनी चाहिये।  पंक्ति में पौधे से पौधे की दुरी 8 से 10 सेंटीमीटर उचित मानी गई है।

खाद एवं उर्वरक:- 20 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश एवं 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर संस्तुत की गई है।

सिंचाई प्रबंधन:- चने की खेती मुख्यतः असिंचित अवस्था में की जाती है। जहाँ पर सिंचाई के लिए सीमित जल उपलब्ध हो, वहाँ फूल आने के पहले  एक हल्की सिंचाई करें। सिंचित क्षेत्रों में दूसरी सिंचाई फली बनते समय अवश्य करें। फूल आने की स्थिति में सिंचाई नहीं करनी चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण।

खरपतवार चने की खेती को 50 से 60 प्रतिशत तक नुकसान पहुंचाते हैं। अतः खरपतवार नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है।

कीट नियंत्रण:- चने की खेती में मुख्य रूप से फली भेदक कीट का प्रकोप अधिक होता है। देर से बुवाई की जाने वाली फसलों में इसका प्रकोप अधिक होता है। फली भेदक के नियंत्रण के लिए इण्डेक्सोकार्ब का छिड़काव करें।

पाले से फसल का बचाव:- चने की खेती में पाले के प्रभाव के कारण काफी होती है। पाले के पड़ने की संभावना दिसम्बर से जनवरी में ज्यादा होती है। पाले से बचाव लिए फसल में गन्धक के तेजाब की 0.1 प्रतिशत मात्रा यानि एक लीटर गन्धक के तेजाब को 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। पाला पड़ने की सम्भावना होने पर खेत के चारों और धुआं भी किया जा सकता  है।

फसल की कटाई एवं गहाई।

चने की कटाई पत्तियाँ व फलियाँ पीली व भूरे रंग की हो जाने तथा पत्तियों के गिरने  और दाने के सख्त हो जाने पर करनी चाहिये। फसल जब अच्छी प्रकार सूख जाये तो थ्रेशर द्वारा दाने को भूसे से अलग कर लेने के बाद अच्छी प्रकार सुखाकर भंडारित करें।

पैदावार:- उपरोक्त उन्नत तकनीक का प्रयोग कर उगायी गई चने की खेती द्वारा 20 से 25 क्विंटल उपज प्रति हैक्टेयर प्राप्त की जा सकती है।

फसलबाज़ार

17 thoughts on “चने की खेती, तथा इसके व्यापारिक महत्व।

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  2. कोई नई वैरायटी है क्या चने की बड़ा वाला

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