धान की खेती तथा उसका व्यापारिक महत्व।

चावल भारत की सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल है। चावल धान (paddy) से प्राप्त होता है। धान लगभग आधी भारतीय आबादी का भोजन है। बल्कि यह दुनिया की मानविय आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए विशेष रूप से एशिया में व्यापक रूप से खाया जाता है।

चावल भारत की सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल है। चावल धान (paddy) से प्राप्त होता है। धान लगभग आधी भारतीय आबादी का भोजन है। बल्कि यह दुनिया की मानविय आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए विशेष रूप से एशिया में व्यापक रूप से खाया जाता है। गन्ना और मक्का के बाद यह तीसरा सबसे अधिक विश्वव्यापी उत्पादन के साथ कृषि वस्तु है। धान सबसे पुरानी ज्ञात फसलों में से एक है। यह करीब 5000 साल पहले चीन में सबसे बड़े रूप में उगाई गई।

भारत में धान की खोज 3000 ईसा. में हुई थी। यह खोज किसी वैज्ञानिक ने नही बल्कि किसानों और मूल लोगों ने की थी। उधर चीन से धान का निर्यात दुनिया के अन्य देशों में फ़ैल रहा था। भारत में हडप्पा सभ्यता के दौरान लोग लगभग 2500 ईसा. पूर्व चावल को विकसित करने में लगे। अगर भारतीय ग्रंथो की बात की जाय तो युजर्वेद में धान का उल्लेख 1500 से 1800 ईसा. पूर्व किया गया है।

चावल की खेती भारत भर के लाखों परिवारों की मुख्य गतिविधि और आय का स्रोत है। भारत का धान की पैदावार में दूसरा स्थान है। सरकार भी इसकी पैदावार को बढ़ाने के लिए नई किस्मों का अविष्कार कर रही है। जिसे किसानों की आय में इजाफा हो सके।

चावल की खेती भारत भर के लाखों परिवारों की मुख्य गतिविधि और आय का स्रोत है। भारत का धान की पैदावार में दूसरा स्थान है। सरकार भी इसकी पैदावार को बढ़ाने के लिए नई किस्मों का अविष्कार कर रही है। जिसे किसानों की आय में इजाफा हो सके।
धान की खेती

जलवायु:- धान मुख्यतः उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु की फसल है। धान को उन सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। जहां 4 से 6 महीनों तक औसत तापमान 21 डिग्री सेल्सियस या इससे अधिक रहता है।

फसल की अच्छी बढ़वार के लिए 25 से 30 डिग्री सेल्सियस तथा पकने के लिए 20 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त होता है। रात्रि का तापमान जितना कम रहे, फसल की पैदावार के लिए उतना ही अच्छा है। लेकिन 15 डिग्री सेल्सियस से नीचे नहीं गिरना चाहिए।

उपयुक्त भूमि:- धान की खेती के लिए अधिक जलधारण क्षमता वाली मिटटी जैसे- चिकनी, मटियार या मटियार-दोमट मिटटी प्रायः उपयुक्त होती हैं। भूमि का पी एच मान 4 से 8 उपयुक्त होता है। सबसे अधिक उपयुक्त मिटटी पी एच 6.5 वाली मानी गई है। क्षारीय एवं लवणीय भूमि में मिटटी सुधारकों का समुचित उपयोग करके धान को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

धान की खेती के लिए फसल चक्र।

फसल चक्र:- उत्तरी भारत की गहरी मिटटी में धान काटने के बाद आलू, बरसीम, चना, मसूर, सरसों, लाही या गन्ना आदि को उगाया जाता है। उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों में सिंचाई, विपणन आदि की सुविधा उपलब्ध होने पर एक वर्षीय फसल चक्र –

1. धान-गेहूं-लोबिया/उड़द / मूंग (एक वर्ष)

2. धान-सब्जी मटर-मक्का (एक वर्ष)

3. धान-चना-मक्का+लोबिया (एक वर्ष)

4. धान-आलू-मक्का (एक वर्ष)

5. धान-लाही-गेहूं (एक वर्ष)

6. धान-लाही–गेहूं-मूंग (एक वर्ष)

7. धान-बरसीम (एक वर्ष)

8. धान-गन्ना, पेड़ी-गेहूं-मूंग (तीन वर्ष)

9. धान-गेहूं (एक वर्ष) तथा धान-सब्जी मटर-गेहूं-मूंग (एक वर्ष)

उन्नत किस्में:- धान की खेती के लिए अपने क्षेत्र विशेष के लिए उन्नत किस्मों का ही प्रयोग करना चाहिए। जिससे कि अधिक से अधिक पैदावार ली जा सके।

इसके लिए कुछ प्रमुख किस्में इस प्रकार है, जैसे-

अगेती किस्में (110 से 115 दिन) – इनमें मुख्य रूप से पी एन आर- 381, पी एन आर- 162, नरेन्द्र धान- 86, गोविन्द, साकेत- 4, पूसा- 2 व 21, पूसा- 33 व 834, और नरेन्द्र धान- 97 आदि किस्में प्रमुख हैं. इनकी नर्सरी का समय 15 मई से 15 जून तक है और इनकी औसत पैदावार लगभग 4.5 से 6.0 टन प्रति हेक्टेयर तक है।

मध्यम अवधि की किस्में (120 से 125 दिन) – इनमें मुख्य किस्में पूसा- 169, 205 व 44, सरजू- 52, पंत धान- 10, पंत धान- 12, आई आर- 64 आदि प्रमुख हैं। इनका नर्सरी समय 15 मई से 20 जून तक होता है और इनकी औसत पैदावार लगभग 5.5 से 6.5 टन प्रति हेक्टेयर है।

लम्बी अवधि वाली किस्में (130 से 140 दिन) – इस वर्ग में पूसा- 44, पी आर- 106, मालवीय- 36, नरेन्द्र- 359, महसुरी आदि प्रमुख किस्में हैं। इनकी औसत पैदावार लगभग 6.0 से 7.0 टन प्रति हेक्टेयर है। इनका नर्सरी समय 20 मई से 20 जून तक होता है। इन किस्मों के अतिरिक्त देश के विभिन्न भागों में लगाई जाने वाली कुछ प्रमुख किस्में जैसे आई आर- 36, एम टी यू- 7029 (स्वर्णा), एम टी यू- 1001 (विजेता), एम टी यू- 1010 (काटन डोरा संहालू), बी पी टी- 5204 (साम्भा महसुरी), उन्नत सांभा महसुरी (पत्ती के झुलसा रोग के प्रतिरोधी), ललाट, ए डी टी- 43 आदि हैं।

संकर किस्में (125 से 135 दिन) – इनमें मुख्य रूप से पंत संकर धान- 1, के आर एच- 2, पी एस डी- 3, जी के- 5003, पी ए- 6444, पी ए- 6201, पी ए- 6219, डी आर आर एच- 3, इंदिरा सोना, सुरूचि, नरेन्द्र संकर धान- 2, प्रो एग्रो- 6201, पी एच बी- 71, एच आर आई- 120, आर एच- 204 और पी आर एच -10 संकर किस्में हैं। इनकी औसत पैदावार लगभग 6.5 से 8.0 टन प्रति हेक्टेयर है।

बासमती किस्में – इनमें मुख्य रूप से पूसा बासमती- 1, पूसा सुगंध- 2, 3, 4 व 5, कस्तुरी- 385, बासमती- 370 व बासमती तरावडी आदि प्रमुख है। इसका नर्सरी समय 15 मई से 15 जून तक होता है, इनकी औसत पैदावार लगभग 5.5 से 7.0 टन प्रति हेक्टेयर है।

धान के खेत की तैयारी और बुआई

खेत की तैयारी:- धान की खेती मुख्य रूप से निचली भूमियों में की जाती है, साथ ही धान को ऊंची भूमियों और गहरे पानी में भी उगाया जाता है। धान उगाने की विभिन्न विधियों में से उत्तरी भारत के लिए धान सघनता पद्धति, एरोबिक धान पद्धति और रोपाई विधि अधिक महत्वपूर्ण है। अतः उपरोक्त तीनों विधियों का उल्लेख विस्तार से इस प्रकार है।

धान की खेती मुख्य रूप से निचली भूमियों में की जाती है, साथ ही धान को ऊंची भूमियों और गहरे पानी में भी उगाया जाता है। धान उगाने की विभिन्न विधियों में से उत्तरी भारत के लिए धान सघनता पद्धति, एरोबिक धान पद्धति और रोपाई विधि अधिक महत्वपूर्ण है। अतः उपरोक्त तीनों विधियों का उल्लेख विस्तार से इस प्रकार है।
धान की फसल

धान सघनता विधि

1. इस पद्धति को सिस्टम ऑफ राइस इन्टेंसिफिकेशन या एस आर आई याधान सघनता पद्धति के नाम से जाना जाता है। इस पद्धति से धान उगाने के लिए पौध की रोपाई योग्य उम्र 8 से 10 दिन या अधिकतम 14 दिन संस्तुत की गई है। इस अवस्था की पौध को उखाड़ने और खेत में लगाने के बीच कम से कम समय होना चाहिए।

2. खेत की तैयारी परंपरागत तरीके से की जाती है। खेत में पानी खड़ा करके मिट्टी पलटने वाले हल या पडलर से 2 से 3 बार जुताई करके पाटा लगा देते हैं।

3. पौध की रोपाई 25*25 सेंटीमीटर अंतरण पर की जाती है एवं एक स्थान पर एक ही पौधा रोपा जाता है। इस विधि की मुख्य विशेषता यह है कि खेत में खड़ा हुआ पानी नहीं रखना है। खेत को हमेशा नमीयुक्त रखना आवश्यक है। बार-बार कुछ अंतराल पर हल्की सिंचाई करना तथा खेत को पानी रहित रखना पड़ता है, ताकि मिट्टी में पर्याप्त वायु संचार हो सके।

4. खरपतवार समस्या से निजात पाने के लिए हस्तचालित या शक्तिचालित ‘रोटेटिंग हो’ का प्रयोग संस्तुत किया गया है। इस विधि से खरपतवार नियंत्रण के साथ-साथ मिट्टी में वायु संचार भी बढ़ता है। जिससे कि जड़ों का विकास अच्छा होता है साथ ही खरपतवार मिट्टी में मिल जाने के बाद उसमे जैव-पदार्थ की मात्रा बढ़ाते हैं, जो कि लाभदायक जीवों की संख्या में वृद्धि करता है।

5. धान सघनता पद्धति में पोषक तत्वों की पूर्ति जैविक स्रोतों जैसे कम्पोस्ट, गोबर की खाद और हरी खाद आदि से की जानी चाहिए। यदि जैविक स्रोत पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न हों तो आवश्यक पोषक तत्वों की आपूर्ति उर्वरकों और जैविक स्रोतों दोनों के एकीकृत प्रयोग द्वारा की जा सकती है।

6. इस विधि से धान उगाने के अनेक लाभ संज्ञान में आए हैं। उदाहरणार्थ परंपरागत तरीके से धान उगाने की तुलना में धान सघनता पद्धति से उगाने पर 1.5 से 3.0 गुनी तक अधिक पैदावार दर्ज की गई है। साथ ही परंपरागत धान पद्धति से धान उगाने की तुलना में धान सघनता पद्धति में 30 से 40 प्रतिशत कम पानी की आवश्यकता होती है।

एरोबिक धान:- यह कम पानी उपलब्ध होने की परिस्थिति में धान उगाने की एक आधुनिक विधि है। एरोबिक धान की जल-उत्पादकता प्रचलित विधि से धान उगाने की तुलना में अधिक होती है। एरोबिक (वायवीय) विधि से धान उगाने के लिए अधिक पैदावार देने वाली संकर प्रजातियों की लेह रहित बीजों को चुना जाता है। इसे सीड ड्रिल या देसी हल से सीधे खेत में बुआई करते हैं तथा गेहूं की भांति धान को उगाया जाता है। साथ ही आवश्यकतानुसार फसल में सिंचाई भी करते रहते हैं।

धान की कुछ संकर किस्में जैसे- अंजलि, प्रो एग्रो 6111, पी आर- 1160, पी आर एच- 10, पूसा 834, सुगंध- 5 आदि को एरोबिक पद्धति से सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। पंक्तियों में देसी हल या सीड ड्रिल से बुआई करने पर 30 से 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है।

पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25 सेंटीमीटर अधिक उपयुक्त पाई गई है। यदि खेत में नमी पर्याप्त न हो तो फसल को पलेवा करने के बाद बोया जाए या बुआई के तुरंत बाद एक हल्का पानी लगाना चाहिए। उत्तरी भारत में इसकी बुआई का उपयुक्त समय जून का महीना है।

एरोबिक धान के लिए 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फॉस्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की संस्तुति की गई है। एक-तिहाई नाइट्रोजन और फॉस्फोरस एवं पोटाश की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय कूड़ों में डालना चाहिए। नाइट्रोजन की शेष दो-तिहाई मात्रा को दो बराबर भागों में बांटकर कल्ले बनते समय तथा पुष्पावस्था पर देना चाहिए।

नीम-लेपित यूरिया का प्रयोग करके धान में नाइट्रोजन की उपयोग क्षमता में वृद्धि की जा सकती है। फसल में बाली निकलने से लेकर पकने की अवस्था तक खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक होता है। प्रचलित धान उगाने की विधि की तुलना में एरोबिक धान में 40 से 45 प्रतिशत पानी की बचत होती है।

एरोबिक धान में प्रायः आयरन उपलब्धता की समस्या आ सकती है। आयरन की कमी के लक्षण पौधों पर इस प्रकार हैं। पत्तियों की शिराओं के बीच पीलापन आना, धीरे- धीरे पौधे के शेष भागों का पीला हो जाना आदि। ऐसे में 0.5 प्रतिशत फेरस सल्फेट या फेरस चिलेट्स का घोल कल्ले फूटने के उपरांत 15 दिन के अंतराल पर 2 से 3 बार छिड़क देना चाहिए।

इस धान में खरपतवारों की बढ़वार भी प्रायः एक गंभीर समस्या होती है। बुआई के 2 से 3 दिन के अंदर पेंडिमिथालिन 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कने पर खरपतवारों की समस्या को कम किया जा सकता है।

इसमें सूत्रकृमियों हानि की भी प्रबल संभावना बनी रहती है। इनके नियंत्रण के लिए कार्बोफ्युरॉन 3 प्रतिशत जी की 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मात्रा का प्रयोग करें।कार्बोफ्युरॉन को अंकुरण के 20 से 30 दिन बाद डालें, परन्तु डालते समय यह सुनिश्चित कर लें कि खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।

रोपाई विधि हेतु बीज की मात्रा और उपचार।

रोपाई:- रोपाई विधि हेतु बीज की मात्रा- बुआई से पहले स्वस्थ बीजों की छंटनी कर लेनी चाहिए इसके लिए 10 प्रतिशत नमक के घोल का प्रयोग करते हैं। नमक का घोल बनाने के लिए 2.0 किलोग्राम सामान्य नमक 20 लीटर पानी में घोल लें।

इस घोल में 30 किलोग्राम बीज डालकर अच्छी तरह हिलाएं। इस तरह साफ व स्वस्थ छांटा हुआ 20 किलोग्राम बीज महीन दाने वाली किस्मों में, तथा 25 किलोग्राम बीज मोटे दानों की किस्मों में एक हेक्टेयर की रोपाई के लिए पौध तैयार करने के लिए पर्याप्त होता है।

रोपाई विधि हेतु बीज की मात्रा- बुवाई से पहले स्वस्थ बीजों की छंटनी कर लेनी चाहिए।इसके लिए 10 प्रतिशत नमक के घोल का प्रयोग करते हैं। नमक का घोल बनाने के लिए 2.0 किलोग्राम सामान्य नमक 20 लीटर पानी में घोल लें।
धान

उपचार:- बीज उपचार के लिए 10 ग्राम बॉविस्टीन और 2.5 ग्राम पोसामाइसिन या 1 ग्राम स्ट्रेप्टोसाईक्लीन या 2.5 ग्राम एग्रीमाइसीन 10 लीटर पानी में घोल लें, अब 20 किलोग्राम छांटे हुए बीज को 25 लीटर उपरोक्त घोल में 24 घंटे के लिए रखें। इस उपचार से जड़ गलन, झोंका और पत्ती झुलसा रोग आदि बीमारियों के नियन्त्रण में सहायता मिलती है।

बीज से पौधों की तैयारी:- नर्सरी ऐसी भूमि में तैयार करनी चाहिए जो उपजाऊ, अच्छे जल निकास वाली व जल स्रोत के पास हो। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में धान की रोपाई के लिए 1/10 हेक्टेयर (1000 वर्ग मीटर) क्षेत्रफल में पौध तैयार करना पर्याप्त होता है।

धान की नर्सरी की बुवाई का सही समय वैसे तो विभिन्न किस्मों पर निर्भर करता है। लेकिन 15 मई से लेकर 20 जून तक का समय बुआई के लिए उपयुक्त पाया गया है।

धान की नर्सरी भीगी विधि से पौध तैयार करने का तरीका उत्तरी भारत में अधिक प्रचलित है। इसके लिए खेत में पानी भरकर 2 से 3 बार जुताई करते हैं। ताकि मिट्टी लेहयुक्त हो जाए और खरपतवार नष्ट हो जाएं। आखिरी जुताई के बाद पाटा लगाकर खेत को समतल कर लें।

जब मिट्टी की सतह पर पानी न रहे तो खेत को 1.25 से 1.50 मीटर चौड़ी और सुविधाजनक लम्बी क्यारियों में बांट लें। क्यारियां बनाने के बाद पौधशाला में 5 सेंटीमीटर ऊंचाई तक पानी भर दें। अंकुरित बीजों को समान रूप से क्यारियों में बिखेर दें।

पौधशाला के 1000 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में लगभग 700 से 800 किलोग्राम गोबर की गली सड़ी खाद, 8 से 12 किलोग्राम यूरिया, 15 से 20 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 5 से 6 किलोग्राम म्युरेट ऑफ पोटाश और 2 से 2.5 किलोग्राम जिंक सल्फेट खेत की तैयारी के समय अच्छी तरह से मिलाना चाहिए।

जिन क्षेत्रों में लौह तत्व की कमी के कारण हरिमाहीनता के लक्षण दिखाई दें, उन क्षेत्रों में 2 से 3 बार एक सप्ताह के अन्तराल पर 0.5 प्रतिशत फेरस सल्फेट के घोल का छिड़काव करने से हरिमाहीनता की समस्या को रोका जा सकता है।

पौधशाला में 10 से 12 दिन बाद निराई अवश्य करें। यदि पौधशाला में अधिक खरपतवार होने की संभावना हो तो ब्युटाक्लोर 50 ई सी या बैन्थियोकार्ब नामक शाकनाशियों की 120 मिलीलीटर मात्रा 60 लीटर पानी में घोलकर 1000 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में बुवाई के 4 से 5 दिन बाद खरपतवार उगने से पहले छिड़क दें।

पौध की रोपाई:- रोपाई के लिए पौध उखाड़ने से एक दिन पहले नर्सरी में पानी लगा दें तथा पौध उखाड़ते समय सावधानी रखें। पौधों की जड़ों को धोते समय नुकसान न होने दें ।पौधों को काफी नीचे से पकड़ें, पौध की रोपाई पंक्तियों में करें।

पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। एक स्थान पर 2 से 3 पौध ही लगाएं, इस प्रकार एक वर्ग मीटर में लगभग 50 पौधे होने चाहिए।

पोषक तत्व एवं जल प्रबंधन।

जल प्रबंधन:- धान की फसल के लिए सिंचाई की पर्याप्त सुविधा होना बहुत ही जरूरी है। सिंचाई की पर्याप्त सुविधा होने पर लगभग 5 से 6 सेंटीमीटर पानी खेत में खड़ा रहना अति लाभकारी होता है।

धान की चार अवस्थाओं – रोपाई, ब्यांत, बाली निकलते समय और दाने भरते समय खेत में सर्वाधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है। इन अवस्थाओं पर खेत में 5 से 6 सेंटीमीटर पानी अवश्य भरा रहना चाहिए।

कटाई से 15 दिन पहले खेत से पानी निकाल कर सिंचाई बंद कर देनी चाहिए।

खरपतवार रोकथाम:- धान के खरतपवार नष्ट करने के लिए खुरपी या पेडीवीडर का प्रयोग किया जा सकता है। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशी दवाओं का प्रयोग करना चाहिए। धान के खेत में खरपतवार नियंत्रण के लिए कुछ शाकनाशियों का उल्लेख निचे सारणी में किया गया है।

खरपतवारनाशी रसायनों की आवश्यक मात्रा को 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से समान रूप से छिड़काव करना चाहिए।

कीट रोकथाम:- पौध फुदके- पौध फुदके भूरे, काले और सफेद रंग के छोटे-छोटे कीट होते हैं। जिनके शिशु एवं वयस्क दोनों ही पौधों के तने और पर्णाच्छद से रस चूसकर फसल को हानि पहुंचाते हैं।

रोकथाम:- फसल पर इस कीट की निगरानी बहुत जरूरी है। क्योंकि फुदके तने पर होते हैं और पत्तों पर नहीं दिखते। इनकी निगरानी के लिए लाइट ट्रैप का प्रयोग भी किया जा सकता है।

अधिक प्रकोप होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल, 1 मिलीलीटर प्रति 3 लीटर पानी या थायोमेथोक्ज़म 25 डब्ल्यू पी, 1 ग्राम प्रति 5 लीटर या बी पी एम सी 50 ई सी का इस्तेमाल करें।

दानेदार कीटनाशी जैसे कार्बोफ्युरान 3 जी 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या फिप्रोनिल 0.3 जी 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

तना छेदक:- तना छेदक की केवल सुंडियां ही फसल को हानि पहुंचाती हैं। और वयस्क पतंगे फूलों के शहद आदि पर निर्वाह करते हैं। बाली आने से पहले इनके हानि के लक्षणों को ‘डेड-हार्ट’ एवं बाली आने के बाद ‘सफेद बाली’ के नाम से जाना जाता है।

तना छेदक से रोकथाम:- प्रकाश प्रपंच के उपयोग से तना छेदक की संख्या पर निगरानी रखें। निगरानी के लिए फेरोमोन प्रपंच 5 प्रति हेक्टेयर पीला तना छेदक के लिए लगाएं।

रोपाई के 30 दिन बाद ट्राइकोग्रामा जैपोनिकम 1 से 1.5 लाख प्रति हेक्टेयर प्रति सप्ताह की दर से 2 से 6 सप्ताह तक छोड़ें। अधिक प्रकोप होने पर दानेदार कीटनाशी जैसे कार्बोफ्युरॉन 3 जी या कारटैप हाइड्रोक्लोराइड 4 जी या फिप्रोनिल 0.3 का छिड़काव करें।

फसलबाज़ार

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