सेब की खेती, रोग की रोकथाम तथा पैदावार।

विश्व में भारत का सेब की खेती में नौवां स्थान है। भारत में सेब के प्रमुख उत्पादक राज्य जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल तथा अरूणाचल प्रदेश है। यह शीतोष्ण फलों में से एक है।

परिचय:- विश्व में भारत का सेब की खेती में नौवां स्थान है। भारत में सेब के प्रमुख उत्पादक राज्य जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल तथा अरूणाचल प्रदेश है। यह शीतोष्ण फलों में से एक है।

सेब अपने विशिष्ट स्वाद, सुगन्ध, रंग व अच्छी भण्डारण क्षमता के कारण प्रमुख स्थान रखता है। सेब कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन खनिज तत्वों के साथ-साथ अनेक विटामिन्स से भरपूर होता है।

सेब शीतोष्ण जलवायु का फल है, यह ठंडे तथा पर्वतीय क्षेत्रो में उगाए जाने वाली फसल है। पुष्प लगने एवं फल लगने के लिए सर्दियों में 800 से 1200 घंटे अति ठंढ यानि 7 डिग्री सैंटीग्रेट से कम तापमान इसके लिए उपयुक्त होता है।
सेब

जलवायु:- सेब शीतोष्ण जलवायु का फल है, यह ठंडे तथा पर्वतीय क्षेत्रो में उगाए जाने वाली फसल है। पुष्प लगने एवं फल लगने के लिए सर्दियों में 800 से 1200 घंटे अति ठंढ यानि 7 डिग्री सैंटीग्रेट से कम तापमान इसके लिए उपयुक्त होता है।

सेब की उद्यान को सूर्य का प्रकाश माह में औसत 200 घंटे पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होना चाहिए। इसके 100 से 150 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा भी आवश्यक है। पुष्पन के समय मार्च से अप्रैल अधिक वर्षा तथा तापमान में उतार-चढाव उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

भूमि:- गहरी उपजाऊ दोमट मिट्टी, जल निकास का उचित प्रबन्ध के साथ, जिसका पी एच मान 5 से 6.5 के बीच हो उपयुक्त है। ध्यान रहे की कम से कम 1.5 से 2 मीटर की गहराई तक कोई कठोर चट्टान न हो।

उन्नत किस्में

भारत में उगाई जाने वाली किस्में कुछ इस प्रकार है।

शीघ्र पकने वाली – यह जुलाई से अगस्त माह में पकती हैं। टाइडमैन अर्ली वारसेस्टर, अर्ली शनवरी, चौबटिया प्रिंसेज, चौबटिया अनुपम, रेड जून, रेड गाला, फैनी, विनोनी आदि।

मध्य में पकने वाली – यह अगस्त से सितम्बर में पकने वाली किस्में हैं। रेड डेलिशियस, रायल डेलिशियस, गोल्डन डेलिशियस, रिच-ए-रेड, रेड गोल्ड, रेड फ्यूजी, जोनाथन, आदि।

देर से पकने वाली – यह सितम्बर से अक्टूबर में पकने वाली किस्में हैं। रायमर, बंकिघम, गेनी स्मिथ आदि।

शंकु किस्में – वर्तमान समय में जल्दी फल देने वाले छोटे पौधों की मांग बढ़ी है। इसकी खेती मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश में की जाती है।

चीफ, आर्गन स्पर, समर रेड, सिल्वर स्पर, स्टार स्पर रेड आदि प्रमुख किस्में है।

सेब की पौधरोपण एवं सिंचाई व्यवस्था।

प्रवर्धन:- सेब की खेती के लिए प्रसारण बीज वाले पौधे बडिंग या रोपण विधि द्वारा किया जाता है। बडिंग जून और ग्राफ्टिंग दिसम्बर से जनवरी में करना उचित होता है।

पुराने तथा कम उत्पादन देने वाले पेड़ों की उत्पादकता में वृद्धि के लिए समय-समय पर कटाई-छटाई किया जाता है।

पौधरोपण:- सेब की खेती हेतु पौधों का रोपण दिसम्बर से मार्च तक करना चाहिए, दूरी निर्धारित किस्मों के अनुसार कर रेखांकन कर लेना चाहिए।

पौधे से पौधे के बीच की दूरी सामान्यतः 5*5 मीटर होती है, रोपण से एक माह पहले गड्डों की खुदाई की जाती है।

अच्छी तथा उपजाऊ मिट्टी में गडढे का माप 2.5*2.5*2.5 फिट तथा कठोर व कम पोषक मिट्टी में 1.0*1.0*1.0 मीटर होनी चाहिए।

रोपने से पहले पौधों की जड़ों को डाइथेन एम- 45 से उपचारित करें।

सेब की खेती में सामान्यतः सेब के पौधों को आकार कटाई-छटाई के माध्यम से प्रदान किया जाता है, जिससे सूर्य की रौशनी आसानी से हर जगह पहुँच सके।
सेब की खेती

सिंचाई व्यवस्था:- रोपाई के साथ पहली सिंचाई तथा पिछली सिंचाई से 7 से 8 दिन बाद दूसरी सिंचाई आवश्यक है।

यह एक बहुवर्षीय पौधा है अतः सेब को अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है, पौधे के जरूरत के हिसाब से सिंचाई करते रहें।

खाद और उर्वरक:- खाद और उर्वरकों की मात्रा मृदा के परीक्षण तथा किस्म के आधार पर निर्धारित की जाती है।

सामान्यतः रोपण के समय 10 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद 1 किलोग्राम नीम की खली, 70 ग्राम नाईट्रोजन 35 ग्राम फास्फोरस और 70 ग्राम पोटेशियम प्रति पेड़ प्रति वर्ष की आयु की दर से 10 वर्ष तक देते रहना चाहिए।

कटाई छटाई:- सेब की खेती में सामान्यतः सेब के पौधों को आकार कटाई-छटाई के माध्यम से प्रदान किया जाता है, जिससे सूर्य की रौशनी आसानी से हर जगह पहुँच सके।

इसके अनुसार मुख्य तने को हर वर्ष रूपान्तरित करके 3 से 4 मीटर तक बढने दिया जाता है तथा बाद में सहशाखा को काट दिया जाता है, इस विधि में ओलावृष्टि और बर्फ से बचाव के सभी गुण होते है।

कीट रोकथाम, फलों की तुड़ाई तथा फलों का श्रेणीकरण।

कीट रोकथाम

सेब की खेती में अनेक प्रकार के कीट लगते है कुछ प्रमुख किट हैं।

सेब का रूईया – कीट के शिशु तथा प्रौढ़ सफेद रूई जैसे आवरण से ढ़के रहते है। पौधे के रस को चूसने के कारण इसके तने और जड़ों में गांठे पड़ जाती है।

रोकथाम हेतु वृक्ष के ऊपरी भाग पर 0.05 प्रतिशत थायोमिथक्जोन, 0.07 प्रतिशत इमिडाक्लोप्रिड अथवा 0.05 प्रतिशत मिथाइल डेमिटान के घोल का छिड़काव करना चाहिए।

सेब का शल्क – कीट के शिशु और वयस्क पेड़ की शाखाओं टहनियों व फलों से रस चूसकर क्षति पहुंचाते हैं।

रोकथाम के लिए प्रभावित वृक्षों मे 2 प्रतिशत ट्री स्प्रे ऑयल के घोल का छिड़काव करें।

जड़ छेदक – इस कीट की सूंडी का शरीर अंतिम भाग से मुंह की ओर मोटा होता हैं।

बचाव हेतु सितम्बर में 0.05 प्रतिशत क्लोरोपायरीफास 30 सैंटीमीटर की गहराई तक मिट्टी में मिला दे।

रोग एवं रोकथाम

सेब का स्कैब – इस रोग की रोकथाम के लिए मैनकोजेब 0.2 प्रतिशत या कैप्टान 0.03 प्रतिशत का छिड़काव करें गिरी हुई पत्तियों को इकट्ठा कर के नष्ट कर दें।

प्रभावित वृक्ष पर पत्ती गिरने से पहले पाँच प्रतिशत यूरीया का छिड़काव करें।

तने की काली – रोग की रोकथाम के लिए प्रभावित शाखाओं को नष्ट कर दें, उचित समय पर कटाई करें।

किसी फफूंदीनाशक कॉपरआक्सीक्लोराइड के 0.3 प्रतिशत या 0.3 प्रतिशत कैप्टान के घोल का 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें।

फलों की तुड़ाई:- सेब की खेती से फलों की तुड़ाई फलों की परिपक्वता की जांच, छिलके का रंग, कठोरता का परीक्षण, फल का आकार आदि के परिक्षण के बाद ही करें।

फलों का श्रेणीकरण

एक्स्ट्रा फैन्सी – ऐसे फल जिनके रंग का विकास 70 प्रतिशत या इससे अधिक होता है तथा फल रोगों और खरोंचों से पूर्णतः मुक्त होता है।

फैन्सी – ऐसे फल जिनके रंग का विकास 40 प्रतिशत या इससे अधिक होता है परन्तु 65 प्रतिशत से कम हो, यह फल रोगों से मुक्त होता है किन्तु कुछ खरोंचों के निशान मान्य होता है।

स्टेन्डर्ड – फलों के रंग का विकास 20-40 प्रतिशत हो, 3 से 5 प्रतिशत तक रोगों आदि के निशान मान्य होते है।

पैदावार:- सेब की पैदावार जलवायु, भूमि की उर्वरा शक्ति तथा किस्म पर निर्भर करती है।वैज्ञानिक तकनीक से बागवानी करने पर एक पेड़ से औसत 100 से 180 किलोग्राम फल प्राप्त हो सकता है।

फसलबाज़ार

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