बेल की व्यापारिक खेती, रोग सुरक्षा तथा लाभ।

शुष्क क्षेत्रों में फलो के उत्पादन की सबसे बड़ी समस्या है, जल की कमी। ऐसे में बहुवर्षीय फल वृक्ष को कम जल की आवश्यकता होती है। कम सिंचित क्षेत्रों में बेल की खेती आसानी से की जा सकती है। आज लोग औषधीय फलों के प्रति अधिक जागरूक हो गए हैं, ऐसे में इससे अधिक लाभ की संभावना है। अतः इसकी बागवानी पर ज़ोर दिया जा रहा है।

परिचय:- बेल, शुष्क क्षेत्रों में फलो के उत्पादन की सबसे बड़ी समस्या है जल की कमी। ऐसे में बहुवर्षीय फल वृक्ष को कम जल की आवश्यकता होती है। कम सिंचित क्षेत्रों में बेल की खेती आसानी से की जा सकती है। आज लोग औषधीय फलों के प्रति अधिक जागरूक हो गए हैं, ऐसे में इससे अधिक लाभ की संभावना है। अतः इसकी बागवानी पर ज़ोर दिया जा रहा है।

बेल एक उपोष्ण जलवायु का पौधा है। इसे उष्ण, शुष्क और अर्द्धशुष्क जलवायु में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इसकी बागवानी 1200 मीटर ऊँचाई तथा 7-46 डिग्री सेल्सियस तापक्रम तक सफलतापूर्वक की जा सकती है।
बेल

भूमि:- बेल को हर प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है। जल निकासयुक्त बलुई दोमट भूमि इसकी खेती के लिए अधिक उपयुक्त होती है।

समस्याग्रस्त क्षेत्रों ऊसर, बंजर, कंकरीली, खादर, बीहड़ भूमि के लिए यह बेहतर फलवृक्ष है। बेल की खेती के लिए 6-8.5 पी एच मान वाली भूमी उत्तम है।

जलवायु:- बेल एक उपोष्ण जलवायु का पौधा है। इसे उष्ण, शुष्क और अर्द्धशुष्क जलवायु में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इसकी बागवानी 1200 मीटर ऊँचाई तथा 7-46 डिग्री सेल्सियस तापक्रम तक सफलतापूर्वक की जा सकती है।

मई-जून की गर्मी के समय इसकी पत्तियाँ झड़ने से पौधों में शुष्क और अर्द्धशुष्क जलवायु को सहन करने की क्षमता बढ़ जाती है।

उन्नत किस्में

अत्यंत जैवविधित वाले इस फल के आंकलन की आवश्यकता है। पुरानी विकसित किस्में, जैसे- सिवान, देवरिया, बड़ा कागजी, इटावा, चकिया, मिर्जापुरी, कागजी गोण्डा आदि ।

नवीनतम उन्नत किस्में – नरेंद्र बेल- 5, पंत शिवानी, पंत अर्पणा, पंत उर्वशी, पंत सुजाता, सी. आई. एस . बी. 1, सी. आई. एस. एच. बी. 2।

प्रवर्द्धन:- बेल के पौधे बीज द्वारा तैयार किये जाते हैं। बीजों की बुआई फलों से निकालने के तुरन्त बाद की जाती है। इसके लिए 15-20 सेंमी. ऊँचाई वाली 1.10 मीटर की बनी बीज शैयया चाहिए।

पौध रोपण:- बेल के पौध रोपण 6-8 मीटर की दूरी पर मृदा उर्वरता के अनुसार करनी चाहिए। रोपण जुलाई-अगस्त में अच्छा पाया गया है। पौध रोपण के एक माह पूर्व 6-8 मीटर के अंतर पर 75 से 100 घन सेंटीमीटर के गड्ढे तैयार कर ले। गड्ढों को 20-30 दिनों तक खुला छोड़कर दे, इसके बाद 3-4 टोकरी गोबर की सड़ी खाद गड्ढे की ऊपरी आधी मिट्टी में मिलाकर भरें।

ऊसर भूमि हो तो प्रति गड्ढे के हिसाब से 20-25 किलोग्राम बालू तथा पी.एच मान के अनुसार 5-8 किलोग्राम जिप्सम/पाइराइट भी मिला कर 6-8 इंच ऊँचाई तक गड्ढों को भरें। इन्हीं तैयार गड्ढों में जुलाई-अगस्त में पौध रोपण करें। पौधे लगाने के बाद हल्की सिंचाई करें, उपयुक्त होता है।

खाद एवं उर्वरक:- पौधों की अच्छी बढ़वार, अधिक फल और पेड़ों को स्वस्थ रखने के लिए उचित मात्रा में खाद एवं उर्वरक आवश्यक है। इसके लिए प्रति पौधा 5 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद, 50 ग्राम नाइट्रोजन, 25 ग्राम फ़ॉस्फोरस और 50 ग्राम पोटाश की मात्रा प्रति वर्ष प्रति वृक्ष डालनी चाहिए। यह मात्रा दस वर्ष तक इसी अनुपात में बढ़ाते रहें ।

बेल की सिंचाई एवं कीट नियंत्रण

सिंचाई:- नये पौधों को एक-दो वर्ष सिंचाई की अत्याधिक आवश्यकता पड़ती है। इससे बड़े बिना सिंचाई के भी अच्छी तरह से रह सकते हैं।

गर्मियों में बेल अपनी पत्तियाँ गिरा कर सुषुतावस्था में चला जाता है। इसमें पुष्पण तथा फल वृद्धि बरसात के मौसम से शुरू होकर जाड़े के समय तक होती है। इससे यह सूखे को सहन कर लेता है।

बेल के पौध रोपण 6-8 मीटर की दूरी पर मृदा उर्वरता के अनुसार करनी चाहिए। रोपण जुलाई-अगस्त में अच्छा पाया गया है। पौध रोपण के एक माह पूर्व 6-8 मीटर के अंतर पर 75 से 100 घन सेंटीमीटर के गड्ढे तैयार कर ले।
बेल की खेती

पौधों की छंटाई और अंत: फसलें:- पौधों की सधाई प्रारंभ के 4-5 वर्षों में करना चाहिए। मुख्य तने को 75 सेंमी. तक अकेला रखना चाहिए। इसके बाद 4-6 मुख्य शाखाएं चारों दिशाओं में बढ़ने दे। सूखी, कीड़ों और बीमारियों से ग्रसित टहनियों को समय-समय पर निकालते रहना चाहिए।

शुरू के वर्षों में अंत: फसल लेते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी फसलें नहीं लेनी चाहिए जिन्हें पानी की अधिक आवश्यकता हो और वह मुख्य फसल को प्रभावित करें।

ऊसर भूमि में अंतः फसल के रूप में लगाये गये बागों में सनई, ढैंचा की फसलें लगा कर वर्षा ऋतु में पलट देने से भूमि की दशा में भी सुधार किया जा सकता है।

रोग एवं कीट

बेल का कैंकर – यह रोग जैन्थोमोनस विल्वी बैक्टीरिया के द्वारा होता है। प्रभावित भागों पर पानीदार धब्बे बनते हैं, जो बाद में बढ़ कर भूरे रंग के हो जाते हैं। बाद में पूर्व प्रभावित भाग का उत्तक गिर जाता है और पत्तियों पर छिद्र बन जाते हैं।

रोकथाम के लिए स्ट्रेप्टोसाइक्लिन सल्फेट पानी में घोल कर 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।

छोटे फलों का गिरना – इस रोग का प्रकोप फ्यूजेरियमनामक फफूंद द्वारा होता है। इसमें बेल के छोटे फल गिरने लगते हैं।

नियंत्रण के लिए जब फल छोटे हों, कार्बेन्डाजिम का दो छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करें।

डाई बैक – इस रोग का प्रकोप फफूंद द्वारा होता है। इस रोग में पौधों की टहनियां ऊपर से नीचे की तरफ सूखने लगती है।

नियंत्रण के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का दो छिड़काव सूखी टहनियों को छांट कर 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए।

फलों का सड़ना – फल तोड़ते समय गिरने से फलों की बाह्य त्वचा में हल्की फटन हो जाती है। ऐसे फल तेजी से सड़ जाते हैं। अतः फलों को सावधानी से तोड़ें यदी फल में फटन आ जाए तो उसे मृदा के संपर्क से बचाये।

कीट:- किट बेल को बहुत कम नुकसान पहुँचाते हैं। पर्ण सुरर्गी और पर्ण भक्षी झल्लीं ऐसी किटें हैं जो थोड़ा नुकसान पहुंचाती है।

रोकथाम के लिए थायोडॉन का छिड़काव सप्ताह के अंतराल पर करना चाहिए।

फलों की तुड़ाई और उपज

अप्रैल-मई में तोड़ने योग्य हो जाते हैं। जब फलों का रंग गहरे पीला हरा होने लगे तो फलों की तुड़ाई 2 सेंमी. डंठल के साथ करनी चाहिए। कलमी पौधों में 3-4 वर्षों में फल प्रारंभ हो जाती है, जबकि बीजू पेड़ 7-8 वर्ष में फल देते हैं।

फलों की संख्या वृक्ष के आकार के साथ बढ़ती रहती है। 10-15 वर्ष के पूर्ण विकसित वृक्ष से 100-150 फल प्राप्त किये जा सकते हैं। जिनकी क़ीमत बाज़ार में 20- 30 रुपये प्रति है।

फसलबाज़ार

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