परिचय:- आपने सिंघाड़ा फल तो खाया ही होगा या फिर अपने उपवास के समय में सिंघाड़े के आटे का इस्तेमाल तो किया ही होगा, पर क्या आप जानते है, इसकी खेती कैसे होती है? तो आइये जानते है कैसे होती है सिंघाड़े की खेती और इसके लाभ के बारे में।
सिंघाड़ा, जिसे पानीफल भी कहते है की खेती तालाबों, नहरों पोखरों जैसी जलीय जगहो में होती है। सिंघाड़ा की खेती ऐसी जगह पे की जाती है जहां कम से कम 1-2 फीट पानी जमा हो।
सिंघाड़े की खेती मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में होती है। मध्यप्रदेश में इसकी खेती लगभग 6000 हेक्टेयर में होती है।
फायदे:- सिंघाड़े में प्रोटीन, शर्करा, कैल्शियम, फास्फोरस, मैगनीज, पोटेशियम, विटामिन सी, जिंक, कॉपर और आयरन उपलब्ध होते हैं।
सिंघाड़ा खाने से अस्थमा, बवासीर, फटी एड़ियां, शरीर दर्द या सूजन, हड्डियां और दांत मजबूत, दस्त, रक्त संबंधी समस्याओं के उपचार में बहुत फायदेमंद है। इसके अलावा प्रेग्नेंसी में और उपवास में भी सिंघाड़ा खाया जाता है।
उपयुक्त जलवायु:- सिंघाड़े की खेती के लिए उष्णकटिबन्धीय जलवायु वाले जगह उत्तम होता है। सिंघाड़े की खेती के लिए खेत या तालाब में लग-भग 1-2 फीट पानी होना चाहिए और खेतों में उत्तम मात्रा में ह्युमस भी होना चाहिए। इसकी खेती के लिए दोमट या बलुई दोमट मिट्टी जिसका pH 6.0-7.5 हो अच्छा माना जाता है।
किस्में:- जल्द पकने वाली जातियां लाल चिकनी गुलरी, लाल गठुआ, हरीरा गठुआ, कटीला किस्मों की पहली तुड़ाई रोपाई के 120-135 दिन में होती है। इसी प्रकार देर से पकने वाली जातियां गुलरा हरीरा, करिया हरीरा, गपाचा में पहली तुड़ाई 150-165 दिनों में होती है।
खेती करने के लिए बिना कांटों वाले सिंघाड़े का चुनाव करना चाहिए ये ज्यादा उत्पादन देती है और इसकी गोटियों का आकार भी बड़ा होता है। इसकी तुड़ाई भी आसानी से की जा सकती है।
नर्सरी:- सिंघाड़े की नर्सरी तैयार करने के लिए पहले की गयी खेती के स्वस्थ पके फलों का बीज जिसकी तुराई दिसंबर में हुई है उसे जनबरी तक (1 महीने तक) पानी में रखना है।
फरवरी के दूसरे सप्ताह में इन बीजों को सुरक्षित जगह पर गहरे पानी में जैसे की तालाबों, नहरों पोखर में डाल दे। मार्च महीने तक इसमें से बेल निकलने लगती है जो की 1 महीने में 1.5 से 2 मीटर तक बढ़ जाती है।
फसल रोपाई:- अप्रैल से जून के महीने तक इन बेलों में से 1-1 मीटर बेलो को ऐसे तालाब में रोपना है जिसमे खरपतवार न हो। रोपाई को सुरक्षित रखने के लिए तालाब में प्रति हेक्टेयर 300 किलो सुपर फॉस्फेट, 60 किलो पोटाश और 20 किलो यूरिया दे देना चाहिए।
कीट और रोगों की रोकथाम के लिए जरुरत पड़ने पर उचित कीटनाशी और कवकनाशी का इस्तेमाल करना चाहिए।
सिंघाड़ा की उपज, कीट एवं रोग।
फसल तुडाई:- जल्दी पकने वाले सिंघाड़े के प्रजातियों की पहली तुड़ाई अक्टूबर के शुरुआत में और अंतिम तुड़ाई दिसम्बर के अंत में होती है।
इसी प्रकार देर से पकने वाले सिंघाड़े के प्रजातियों की पहली तुड़ाई नवम्बर के शुरुआत में और अंतिम तुड़ाई जनवरी के अंत में होती है। फसल तुडाई के समय यह ध्यान रखना चाहिए कि सिर्फ पूर्ण रूप से पके फलों की ही तुडाई हो।
फलों को सुखाना:- सिंघाड़े के फलों की गोटी बनाने के लिए उसे सुखाया जाता है। इसे लग-भग 15-20 दिन तक पक्के खलिहान या पॉलीथिन में सुखाना चाहिए और 2-4 दिन के अंतराल पर उलट-पलट भी कर देनी चाहिए जिससे फल अच्छे से सूख जाये।
कीट और रोग:- सिंघाड़े की खेती में ज्यादातर सिंघाड़ा भृंग, नीला भृंग, माहू, घुन और लाल खजूरा नाम के कीट का खतरा होता है, जो फसल को 25%-40% तक कम कर देते है।
इसके अलावा लोहिया और दहिया रोग का खतरा होता है। इससे बचाव के लिए हमें समय रहते कीटनाशक का इस्तेमाल कर लेना चाहिए।
उपज
हरे फल – 80 से 100 क्विंटल/ हेक्टेयर।
सूखी गोटी – 18 से 20 क्विंटल/ हेक्टेयर।
कुल लागत – लगभग 50000 रू/ हेक्टेयर।