नारियल की खेती, पौध रोपण तथा व्यापारिक महत्व।

नारियल एक आराध्य फल होने के साथ-साथ दैनिक जीवन में भी अत्यंत उपयोगी है। भारत में इसके संस्कृतिक महत्व के साथ-साथ आर्थिक महत्व भी है।

परिचय:- नारियल एक आराध्य फल होने के साथ-साथ दैनिक जीवन में भी अत्यंत उपयोगी है। भारत में इसके संस्कृतिक महत्व के साथ-साथ आर्थिक महत्व भी है।

इसे भारत के छोटे किसानों का जीवन जुड़ा हुआ है। इस वृक्ष का हर हिस्सा उपयोगी है। नारियल का कच्चा फल पक जाने पे खाद्य एवं तेल के लिए उपयोग किया जाता है।

फल का छिलका विभिन्न औद्योगिक कार्यो में तथा पत्ते एवं लकड़ी भी अत्यंत उपयोगी हैं। नारियल की इन्हीं उपियोगिताओं के कारण इसे कल्पवृक्ष कहा जाता है।

 इसे भारत के छोटे किसानों का जीवन जुड़ा हुआ है। इस वृक्ष का हर हिस्सा उपयोगी है। नारियल का कच्चा फल पक जाने पे खाद्य एवं तेल के लिए उपयोग किया जाता है।
नारियल

जलवायु:- इसके पौधों की अच्छी विकाश एवं उचित फलन के लिए उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु आवश्यक है। जिन क्षेत्रों में तापमान 10 डिग्री से. – 40 डिग्री से. हो उन क्षेत्रों में भी इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

इसके लिए वर्ष भर समान अनुपात रूप से वर्षा लाभदायक है। समानुपातिक वर्षा न होने पर सिंचाई आवश्यक है।

मिट्टी:- नारियल की फसल खेती के लिए नमी युक्त अच्छी जल निकास क्षमता वाली मिट्टी उपयोगी है, मिट्टी का पी.एच. 5.2 से 8.8 के मध्य हो।

काली तथा पथरीली मिट्टियों के अलावा ऐसी सभी मिट्टियाँ जिनमें निचली सतह में चट्टान न हो नारियल की खेती के लिए उपयुक्त हैं। बलुई दोमट मिट्टी सर्वोतम मानी जाती है।

किस्में:- नारियल की किस्मों को दो वर्गो में बांटा गया है लम्बी व बौनी किस्म के नाम से जानी जाती है। इन दोनों किस्मों के संस्करण से उन्नत किस्म को संकर किस्म के नाम से जानी जाती है।

लम्बी किस्म की उपजातियां में पश्चिम तटीय लम्बी प्रजाति, पूर्व तटीय लम्बी प्रजाति, तिप्तुर लम्बी प्रजाति, अंडमान लम्बी प्रजाति, अंडमान जायंट एवं लक्षद्वीप साधारण आदि प्रमुख हैं।

बौनी किस्म की उपजातियों में चावक्काड ऑरेंज एवं चावक्काड हरी प्रचलित हैं। संकर किस्मों में मुख्य हैं लक्षगंगा, केरागंगा एवं आनंद गंगा।

नारियल का पौध रोपण, खाद एवं उर्वरक।

पौध रोपण:- गुणवत्ता युक्त पौधों का चुनाव करते समय ध्यान रखें कि बिचड़े की उम्र 9-18 माह के बीच हो तथा उनमें कम से कम 5-7 हरे भरे पत्ते हों। बिचड़ों के गर्दन वाली भाग का घेरा 10-12 सें.मी. हो तथा पौधे रोगमुक्त हो।

अप्रैल-मई माह में 7.5*7.5 मीटर की दूरी पर 1*1*1 मीटर आकार के गड्ढे बनाएं । प्रथम वर्षा होने तक गड्ढा खुला रखा जाता है वर्षा के बाद गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट सतही मिट्टी में मिलाकर इस तरह भरें कि ऊपर से 20 सें.मी. गड्ढा खाली रहे।

शेष बची हुई मिट्टी से पौधा लगाने के बाद गड्ढे के चारों ओर मेढ बना दें ताकि गड्ढे में वर्षा का पानी इकट्ठा न हो।

 गुणवत्ता युक्त पौधों का चुनाव करते समय ध्यान रखें कि बिचड़े की उम्र 9-18 माह के बीच हो तथा उनमें कम से कम 5-7 हरे भरे पत्ते हों। बिचड़ों के गर्दन वाली भाग का घेरा 10-12 सें.मी. हो तथा पौधे रोगमुक्त हो।
नारियल की खेती

उपयुक्त समय:- नारियल लगाने का उपयुक्त समय जून से सितम्बर है। लेकिन जहाँ सिंचाई की व्यवस्था हो तो जाड़े तथा भारी वर्षा का समय छोड़कर कभी भी पौधा लगाया जा सकता है।

पौधों की देखभाल:- नव रोपित बिचड़ों को गर्मी तथा ठंढ से बचाव हेतु समुचित छाया एवं सिंचाई की व्यवस्था आवश्यक है।

रोपण के बाद 2 वर्ष तक तना तथा बीजनट का गर्दनी भाग खुला रखें। नारियल के वयस्क वृक्षों की उत्पादकता बनाये रखने के आवश्यकता अनुसार सिंचाई बहुत जरूरी है।

खाद एवं उर्वरक:- लंबी अवधि तक अधिक उत्पादन के लिए अनुशंसित मात्रा में खाद एवं उर्वरकों का नियमित प्रयोग आवश्यक है।

वयस्क नारियल पौधों को प्रतिवर्ष प्रथम वर्षा के समय जून में 30-40 किलो सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट का प्रयोग करें। इसके अलावा उचित मात्रा में यूरिया, सिंगल सुपर फास्फेट तथा म्यूरेट ऑफ पोटाश का प्रयोग करें।

निराई-गुड़ाई:- नारियल बाग़ में अधिक उत्पादन प्राप्त करने तथा खरपतवार के नियंत्रण के लिए नियमित निराई-गुड़ाई एवं जुताई आवश्यक है। इन क्रियाओं से पौधों की जड़ों में वायु का संचार बना रहता है।

मिश्रित फसलें, मुख्य किट, रोग एवं नियंत्रण।

मिश्रित फसल:- नारियल के बाग़ में अनेक मिश्रित फसलें उगाने की अनुशंसा की जाती है। इन फसलों से नारियल उत्पादकों को अतिरिक्त आय होती है।

इन फसलों का चयन क्षेत्र की जलवायु की स्थिति तथा आवश्यकता को ध्यान में रख कर करें।

ऐसे फसलों के रूप में केला, अनन्नास, ओल, मिर्च, शकरकंद, पपीता, नींबू, हल्दी, अदरक, मौसम्बी, टेपीओका, तेजपात आदि की खेती की जा सकती है।

नारियल में पाये जाने वाले कुछ प्रमुख कीट एवं व्याधियाँ इस प्रकार हैं।

गैंडा भृंग (रिनोसिरस बीटल), लाल ताड धुन (रेड पाम वीविल), कोरिड बग एवं कोकोनट माइट आदि।

रोग एवं उनका नियंत्रण

महाली, फल सड़न एवं नट फ़ॉल (फल गिराव) – इस बीमारी के कारण मादा फूल एवं अपरिपक्व फल गिरने लगते है। इसके चलते नव विकसित फलों के डंठलों के समीप घाव दिखाई देते हैं।

नियंत्रण हेतु नारियल के मुकुट पर एक प्रतिशत बोर्डो मिश्रण का छिड़काव एक बार वर्षा प्रारंभ होने के पूर्व और पुन: दो माह के अंतराल पर करें।

बडरॉट अथवा कली सड़न – इस बीमारी में कोंपल मुर्झाई हुई दिखाई देती है। जब बीमारी अपने उत्कर्ष पर पहुंचती है तो केन्द्रस्थ पत्ती मुर्झा कर नीचे झुक जाती है।

और अंतत: नारियल का सम्पूर्ण मुकुट नीचे गिर जाता है और नारियल का वृक्ष अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर देता है। मुकुट के कोमल पर्णाधार के सड़ने से सड़े अण्डों जैसी दुर्गंध निकलती है।

प्रबंधन – मुकुट के सभी बीमार ऊतकों को निकाल कर 10 प्रतिशत बोर्डोपेस्ट का लेप करें और नये उत्तकों के आने तक यह रक्षात्मक कवच बने रहने दें।

तथा अन्य वृक्षों के मुकुट पर एक प्रतिशत बोर्डो मिश्रण का छिड़काव करें।

क्राउन चोकिंग – यह रोग साधारणतया देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में ही देखा गया है। इस रोग से कम उम्र के पौधे ज्यादा प्रभावित होते हैं इससे बचाव के लिए उचित मात्रा में खाद्य एवं उर्वरक दें।

फसलबाज़ार

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