मेंथा की व्यापारीक खेती एवं बुआई का समय।

मेंथा एक औषधीय गुणों से भरपूर वनस्पति है। इसकी उपलब्धता तथा इसके फायदे को देखते हुए पिछले कुछ वर्षों से मेंथा जायद की प्रमुख फसल के रूप में अपना स्थान बना रही है। इसके तेल का उपयोग सुगन्ध व औषधि बनाने में किया जाता है।

परिचय:- मेंथा एक औषधीय गुणों से भरपूर वनस्पति है। इसकी उपलब्धता तथा इसके फायदे को देखते हुए पिछले कुछ वर्षों से मेंथा जायद की प्रमुख फसल के रूप में अपना स्थान बना रही है। इसके तेल का उपयोग सुगन्ध व औषधि बनाने में किया जाता है।

मेंथा की अच्छी खेती क लिए जीवांशयुक्त अच्छी जल निकास वाली तथा 6.0 से 7.5 के पी. एच. मान वाली वाली बलुई दोमट व मटियारी दोमट भूमि उपयुक्त रहती है।
मेंथा(Mint)

भूमि:- मेंथा की अच्छी खेती के लिए जीवांश युक्त अच्छी जल निकास वाली तथा 6.0 से 7.5 के पी. एच. मान वाली बलुई दोमट व मटियार दोमट भूमि उपयुक्त रहती है।

खेत की तैयारी:- खेत की अच्छी तरह से 2-3 जुताई करके भूमि पर पाटा चलाकर समतल बना लेते हैं। मेंथा की रोपाई के तुरन्त बाद में खेत में हल्की सिंचाई करते हैं।

प्रमुख प्रजातियाँ:- मेन्था स्पाइकाटा एम०एस०एस०-1 (देशी पोदीना), कोसा (जापानी पोदीना), हिमालय गोमती (एम०ए०एच०-9), एम०एस०एस०-1, एच०वाई-77 तथा मेन्था पिप्रेटा-कुकरैल हैं।

पौधशाला में लगाने का समय:- नर्सरी में लगाने हेतु मेन्था की जड़ों की बुआई अगस्त में करते हैं। नर्सरी को जलभराव से बचाने हेतु ऊँचे स्थान में बनाते हैं।

बुआई का समय:- मेन्था की जड़ों की बुआई का उचति समय 15 जनवरी से 15 फरवरी है। देर से बुआई करने पर तेल की मात्रा कम हो जाती है। उपज भी प्रभावित होता है। नर्सरी में तैयार पौधे को देर से बुआई के लिए उपयोग कर सकते हैं।

नर्सरी में तैयार पौधे को मार्च से अप्रैल के प्रथम सप्ताह तक खेत में लगाई जा सकती है। विलम्ब से मेंथा की खेती के लिए कोसी प्रजाति का चुनाव करें।

बीजोपचार:- रोपाई से पहले बीजोपचार आवश्यक है। अतः रोगों से बचाने हेतु बीजों को शोधित करके बुआई करें।

विधि:- जापानी मेंथा की रोपाई पंक्तियों में करें। तथा पंक्तियों से पंक्तियों की दूरी 30-40 सेमी तथा देशी मेंथा की 45-60 सेमी० रखी जानी चाहीए पौधे से पौधे की दूरी 15 सेमी उत्तम है।

जड़ों की रोपाई 3 से 5 सेमी गहराई में गढ्ढे बनाकर करनी चाहिए। रोपाई के बाद हल्की सिंचाई आवश्यक है।

बीज की मात्रा:- बुआई हेतु 4 से 5 कुंतल जड़ों के 8 से 10 सेमी के टुकड़े उपयुक्त होते हैं।

मेंथा की सिंचाई तथा खरपतवार नियंत्रण

खाद एवं उर्वरक:- उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर किया जाना लाभदायक है। सामान्यतः मेंथा की अच्छी उपज के लिए नाइट्रोजन, फास्फोरस,पोटास, सल्फर प्रयोग करना चाहिए।

फास्फोरस, पोटाश तथा सल्फर नाइट्रोजन के साथ मिलाकर बुआई से पूर्व गड्ढों में प्रयोग करना चाहिए। शेष नाइट्रोजन को बुआई के 45 दिन तथा फिरसे 70-80 दिन पर तथा पहली कटाई के 20 दिन पश्चात् देना उचित है।

सिंचाई:- मेंथा में सिंचाई भूमि की नमी को ध्यान में रख कर करें। पहली सिंचाई बुआई के तुरन्त बाद उसके बाद 20-25 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए। प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई अनिवार्य है।

खरपतवार नियंत्रण:- खरपतवार नियंत्रण के लिए समय-समय पर निदाई-गुड़ाई आवश्यक है। खरपतवार के रासायनिक नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथलीन 30 ई०सी० के 3.4 लीटर प्रति हे० को 750-800 लीटर पानी में घोलकर ओट आने पर छिड़काव करें।

फसल सुरक्षा

दीमक:- दीमक जड़ों को क्षति पहुंचाती है, अतः खड़ी फसल में दीमक का प्रकोप होने पर क्लोरपाइरीफास का प्रयोग करें।

यह पत्तियों की निचली सतह पर रहती है और पत्तियों को खाती है। जिससे तेल की प्रतिशत मात्रा कम हो जाती है। इस कीट से फसल की सुरक्षा के लिए डाइकलोर वास या फेनवेलरेट का प्रयोग करें।
मेंथा की खेती

बालदार सूंड़ी:- यह पत्तियों की निचली सतह पर रहती है और पत्तियों को खाती है। जिससे तेल की प्रतिशत मात्रा कम हो जाती है। इस कीट से फसल की सुरक्षा के लिए डाइकलोर वास या फेनवेलरेट का प्रयोग करें।

पत्ती लपेटक कीट:- इसकी सूड़ियां पत्तियों को लपेटते हुए खाती हैं। इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास का प्रयोग करें।

रोग

जड़गलन:- इस रोग में जड़े काली पड़ जाती है तथा जड़ों पर गुलाबी धब्बे दिखाई देते हैं। कार्बेन्डाजिम से बीजोपचार करके प्रयोग करने से इस रोग का से बचा जा सकता है।

पर्णदाग:- इसमे पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं तथा इससे पत्तियां पीली पड़ कर गिरने लगती हैं। इस रोग के निदान हेतु मैंकोजेब 75 डब्लू पी नामक फफूंदीनाशक का प्रयोग करें।

कटाई:- मेंथा की कटाई प्रायः दो बार की जाती है। पौधों की कटाई जमीन की सतह से 4-5 सेमी ऊॅंचाई पर करनी चाहिए। दूसरी कटाई पहली कटाई के लगभग 70-80 दिन बाद करें।

कटाई के बाद पौधों को 2 से 3 घन्टे खुली धूप में छोड़ दें इसके बाद फसल को छाया में हल्का सुखाकर तेल निकाल लें।

उपज:- प्रति हेक्टेयर लगभग 250-300 कुन्तल शाक और इसी शाक से 125-150 किग्रा० तेल प्राप्त होता है।

फसलबाज़ार

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