जैतून की खेती एवं किस्में, फायदे तथा व्यापारिक लाभ।

जैतुन यानी की औलिव ओलीसी परिवार में छोटे पेड़ की एक प्रजाति है जिसकी खेती भूमध्यसागरीय, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, उत्तर और दक्षिण अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका, भारत आदि में की जाती है।

परिचय:- जैतुन यानी की औलिव ओलीसी परिवार में छोटे पेड़ की एक प्रजाति है जिसकी खेती भूमध्यसागरीय, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, उत्तर और दक्षिण अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका, भारत आदि में की जाती है। जैतून का पेड़ छोटा और स्क्वाट होता है, और शायद ही कभी ऊंचाई में 8-15 मीटर से अधिक होता है और इसकी फल हरे से बैंगनी रंग की अवस्था में काटे जाते हैं।

इसका इस्तेमाल तेल, सौन्दर्य प्रसाधनों और दवाइयों के निर्माण के लिए किया जाता है जो की भारत में और अन्य देशों में काफी प्रसिद्ध है। कच्चे औलिव का स्वाद खाने में बहुत कड़वे होते हैं लेकिन इसे संसाधित करने के बाद आमतौर पर उन्हें ठीक करके या अचार बनाकर, इसका आनंद लिया जा सकता है। सभी कटे हुए जैतून का लगभग 90% तेल में बदल जाता है।

जैतून का इस्तेमाल तेल, सौन्दर्य प्रसाधनों और दवाइयों के निर्माण के लिए किया जाता है जो की भारत में और अन्य देशों में काफी प्रसिद्ध है। कच्चे औलिव का स्वाद खाने में बहुत कड़वे होते हैं लेकिन इसे संसाधित करने के बाद आमतौर पर उन्हें ठीक करके या अचार बनाकर, इसका आनंद लिया जा सकता है। सभी कटे हुए जैतून का लगभग 90% तेल में बदल जाता है।
जैतून

जैतून की लकड़ी बहुत सख्त होती है और इसकी स्थायित्व, रंग, उच्च दहन तापमान और दिलचस्प पैटर्न के लिए के वजह से बहुत मेहेंगी होती है। यह फल के व्यावसायिक महत्व पेड़ के धीमी वृद्धि और अपेक्षाकृत आकार में छोटे होने के कारण भी महंगा है।

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी बहुत मांग होने की वजह से ये मेहेंगी बिकती है, जिस वजह से अगर इसकी खेती की जाए तो यह अर्थव्यवस्था के साथ-साथ किसानों के लिए काफी फायदेमंद होगा। भारत में राजस्थान के कुछ जिलों में जैसे की बीकानेर, गंगानगर, हनुमानगढ़, चूरू और जैसलमेर में इसका उत्पादन होता है।

फायदे:- औलिव में अनेकों औषधीय गुण होते हैं, जिस वजह से इसे आयुर्वेद में अनेक रोगों में उपयोगी बताया गया है। इसमें मुख्य रूप से आयरन, कैल्शियम, कोलिन, सोडियम, फाइबर, विटामिन इ, विटामिन क, ओमेगा-3 फैटी एसिड और एंटीऑक्सीडेंट के गुण आदि पाई जाती है।

ओलिव तेल के इस्तेमाल से इम्यूनिटी मजबूत, वजन कम, दिल की सेहत, कैंसर, कोलेस्ट्रोल नियंत्रण, हड्डियों के दर्द, पाचन, त्वचा पर पड़ी झुर्रियों, बलों, ब्लड प्रेशर कम करने और याददाश्तः तेज करने में मदद करती है।

किस्में:- ओलिव के कई किस्म है, इनमे से कुछ प्रजापति इस प्रकार है;

फ्रटियो– देर से पकने वाली इस किस्म का फल बैंगनी रंग का आकार में मध्यम, शीर्ष गोलाकार होता है और इसमें तेल की 26% मात्रा होती है। इसके हर पौधे से 15-20 किलो की उपज होती सकती है।

कोराटीना– इस किस्म के प्रत्येक पौधे से 10-15 किलो की उपज हो सकती है और इसमें तेल की मात्रा 22-24% होती है। इस किस्म का फल बैंगनी रंग का आकार में मध्यम होता है।

लैक्सिनो– देर से पकने वाली इस किस्म के हर पौधे से 10-15 किलो की उपज हो सकती है। इस किस्म का फल बैंगनी रंग का आकार में मध्यम होता है। यह फैलावदार प्रवृत्ति के किस्म का पौधा होता है जिसकी कांट छाट में विशेष ध्यान रखना जरूरी होता है।

एस्कोलानो– यह बड़े आकार का काफी वजनदार फल होता है जिससे प्रति पौधे से 7-10 किलो की उपज हो सकती है और इसमें तेल की मात्रा 10-17% होती है।

इनके अलावा भी जैतून की कई अन्य किस्में भी होती है जैसे: कोरनियकी, बरेनिया, पैंडोलीनो, अरबिकुना, फिशोलिना, एस्कोटिराना और पिकवाल आदि।

जलवायु:- इसकी खेती समुद्र तल से 650-2300 मीटर की ऊंचाई पर, 15°-20° सेल्सियस तापमान में, साल में 100-120 सेमी. बारिश में अच्छे से की जा सकती है। यह 12.2° सेल्सियस तापमान सहन कर सकती है लेकिन बसंत ऋतु से पहले पड़ने वाला पाला इसकी फसल को नुकसान पहुंचा सकता है। यह एक सदाबहार पौधा लेकिन फल के उत्पादन के लिए पतझड़ी पौधों की तरह 400-2000 ठन्डे घंटो की जरुरत होती है।

जैतून की खेती

मिट्टी:- औलिव की खेती के लिए क्षारीय और अम्लीय, उपजाऊ मिट्टी जिसका 6.5-8 पीएच मान हो उपयुक्त होती है। बोरोन, कैल्शियम क्षारीय वाली मिट्टी में भी इसकी खेती ठीक से विकास हो सकते है है लेकिन उपज कम मिलती है और सख्त मिट्टी में यह विकास नहीं कर पाती इसलिए इसमें इसकी खेती नहीं करनी चाहिए।

खेत की तैयारी:- खेत तैयार करने के लिए सबसे पहले जुताई कर ले और छोटे – छोटी क्यारियां बनाए और उसके बीच में सिंचाई नालियां बनाए जिससे बाद में सिंचाई करने में सुविधा हो।

बुवाई:- अगर इसकी खेती अच्छी उपजाऊ मिट्टी में होती है तो 2 पौधों की दुरी 8 मीटर नही तो 6 मीटर रखें। इसके पौधों का रोपण जुलाई-अगस्त में या सिंचाई की सुविधा होने पर दिसंबर-जनवरी में किया जाता है।

सिंचाई:- पहली सिंचाई पौध रोपण के तुरन्त बाद और उसके बाद जरुरत के अनुसार समय समय पर होनी चाहिए।

कटाई-छंटाई:- बरसात के समय पौधों में अतिरिक्त टहनियाँ आ जाती है जिससे पौधा झाड़ीनुमा हो जाता है और दूसरे पौधों को प्रभावित करने के साथ साथ फल पे भी इसका असर होता है। इसीलिए समय समय पर अतिरिक्त टहनियों को काट रहना चाहिए।छंटाई के दौरान फल वाले पौधों की कांट-छांट कम और ध्यान से करें।

रोग और रोकथाम:- इसकी खेती में ज्यादतर एन्थ्रेक्नोज नामक रोग देखा जाता है जिसमे पत्तियों में गहरे भूरे रंग के धब्बे और फलों पर गोल आकार के भूरे रंग के गड्ढे बनने लगते है जो बाद में काले धब्बे हो जाते है। इसके रोकथाम के लिए अनुशंसित कीटनाशकों को उपयोग करें।

तुड़ाई और पैदावार:- औलिव की तुराई 4-5 बार की जा सकती है जब वो पक जाए तो पेड़ों के नीचे कपड़ा या पॉलिथीन बिछाकर फलों को हाथ या डंडे से तोड़ना चाहिए। एक हेक्टेयर में लगभग 475 पेड़ लगाए जा सकते हैं जिससे औसतन 20-27 क्विंटल तेल का उत्पादन हो सकता है।

जैतून का तेल:- जैतून का तेल इसे दबा कर या कुचल के बनाया जाता है। इसके फल से कितनी बार और किस तरीके से तेल निकाला होता है उस हिसाब से उसे अलग अलग नाम दिए जाते हैं। जैसे की जब ओलिव को पहली बार दबा के जो तेल निकलता है उसे “एक्स्ट्रा वर्जिन आयल” कहा जाता है। तेल को छानने और साफ़ करने के बाद उस तेल को सुध ओलिव तेल कहा जाता है। इस तेल को कम ताव पे गरम करने के बाद इसे कोल्ड प्रेस्सेड आयल कहा जाता है।

फसलबाज़ार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Language»