परिचय:- काली मिर्च(पाईपर) एक बहुवर्षीय आरोही बेल है। इसके फल को मसाला तथा औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है। भारत विश्व में काली मिर्च का प्रमुख उत्पादक, उपभोक्ता एवं निर्यातक देशों में से एक है।
भारत में काली मिर्च की खेती मुख्य रूप से केरल, कर्नाटक तथा तमिलनाडू राज्यों में होती है। भारत में इसका उत्पादन औसतन 55-60 हजार टन है।
जलवायु:- काली मिर्च को खेती के लिए पर्याप्त वर्षा तथा आर्द्रता की आव्यशकता होती है। अतः इसकी खेती पश्चिम घाट के उपपर्वतीय क्षेत्र में अधिक होती है।
यहाँ की गरम और आर्द्र जलवायु इसकी खेती के लिए बहुत अच्छी है। इसकी फसल 10 डिग्री से 40 डिग्री तापमान को सहन कर सकती है। पौधों की वृद्धि के लिए 125-200 से.मी. वार्षिक वर्षा आदर्श है।
मिट्टी:- काली मिर्च की खेती अनेक प्रकार की मिट्टी में सफलतापूर्वक की जा सकती है। लेकिन लाल लैटराइट मिट्टी इसकी खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त तथा आदर्श है जिसका पी.एच.मान 5.5 से 6.5 के बीच हो।
कुछ प्रमुख प्रजातियाँ:- पन्न्युर-1, पन्न्युर-3 और पन्न्युर-8, पन्न्युर आई आई एस आर-गिरिमुंडा तथा आई आई एस आर–मलबार एक्सल, अनुसंधान संस्थान (केरल) द्वारा विकसित दो संकर प्रजातियाँ हैं।
प्रवर्द्धन:- काली मिर्च के पौधों को विकसित करने की तीन प्रमुख विधियां हैं।
लम्बे इंटर नोड युक्त तना से, भुस्तरीय प्ररोह से तथा फल युक्त पार्श्व शाखाओं से।
रोपण:- काली मिर्च के पौधों को अनेक तकनीक के माध्यम से उगाया जा सकता है।
परम्परागत विधि:- उच्च उपज वाले स्वस्थ पौधों का चयन करें। उसके प्ररोह के निचले भाग को मिट्टी में दबाकर रखतें हैं तथा जड़ निकलने तक छोड़ देते हैं।
फरवरी-मार्च के महीने में इसकी 2-3 नोडों को काटकर अलग करके प्रत्येक को नर्सरी वेड़ों या पोटिंग मिश्रण युक्त पोलीथीन बैगों में रोपण करते हैं। रोपित पौधों को छाया में रखा जाता है तथा नियमित सिंचाई करना आवश्यक है।
काली मिर्च में लगने वाले रोग, प्रबंधन तथा रोपण।
पौधशाला में हानि पहुँचाने वाले रोग
फाइटोफथोरा रोग – पौधशाला में इस रोग को पौधे के पत्तों, तना तथा जड़ों में देखा जा सकता है।इसमें पत्तों पर काले रंग की चित्ती के निशान पड़ जाते है।
प्रबंधन – रोकथाम के लिए बोर्डियों मिश्रण (1%) का छिड़काव करें।
एन्थ्राकनोज रोग – यह रोग एक कवक के द्वारा होता है। इस संक्रमण में पत्तों पर भूरे-पीले तथा काले–भूरे रंग की अनियमित चित्तियाँ पड़ जाती हैं।
प्रबंधन – नियंत्रण के लिए 1% बोर्डियों मिश्रण या कारबेन्डाजिम (0.1%) का छिड़काव करें।
पर्ण चित्ती रोग – यह राइजोक्टोनिया सोलानी नामक कवक के द्वारा होता है।
मूल म्लानी रोग – यह रोग स्केलेरोटियम रोलफसी नामक कवक के द्वारा होता है।
रोपण:- मानसून के शुरू होने के साथ हीं सहायक वृक्ष के सहारे उत्तर दिशा में 50 से.मी. गहरे गढ्डे खोद लेते हैं।
गड्ढों से गड्ढों की दूरी 30 से.मी. होनी चाहिए, इन गड्ढों में मृदा तथा खाद को 5 कि.ग्राम प्रति गढ्डे की दर से भरना चाहिए।
रोपण के समय नीम केक, ट्राईकोडरमा हरजियानम तथा 150 रोक फासफेट प्रति गढ्डा की दर से डालना चाहिए। वर्षा प्रारंभ होते ही 2-3 काली मिर्च के पौधे को गढ्डे में अलग-अलग स्थान पर रोप दें।
खाद और उर्वरक:- पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए खाद और उर्वरक की पर्याप्त मात्रा डालना चाहिए।
जैविक खाद 10 कि. ग्राम प्रति पौधा तथा नीम केक को 1 कि. ग्राम प्रति पौधा की दर से मई माह में डालना चाहिए।
अधिक अम्लीय मिट्टी रहने पर एक वर्ष के अंतराल पर 500 ग्राम प्रति पौधा की दर से चुना अथवा डोलोमाइट का उपयोग अप्रैल–मई महीने में कर सकते हैं।
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