परिचय:- दालचीनी भारत के पुराने मसालों में से एक है। यह वृक्ष की शुष्क आन्तरिक छाल की पैदावार है। दालचीनी का मूल श्रीलंका माना जाता है। भारत में इसकी खेती केरल एवं तमिलनाडू में की जाती है।
यह वृक्ष कम पोषक तत्व वाले लैटेराइट तथा बलुई मृदा में उगाए जा सकते हैं। यह मुख्यत: वर्षा आधारित वृक्ष होते हैं। इसके लिए 200-250 से मीटर वार्षिक वर्षा आदर्श है। यह खाद्य के जायका बढ़ाने के साथ-साथ औषधीय गुणों से भी भरपूर है।
प्रजातियाँ:- भारतीय मसाला फसल अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित दालचीनी की दो प्रजातियाँ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में पैदावार के लिए उपयुक्त हैं।
नवश्री उत्पादन क्षमता 56 किग्रा प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष है, नित्यश्री की उत्पादन क्षमता 54 कि. ग्राम प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष है। इसके पौधे से छाल के साथ-साथ तेल भी प्राप्त किया जा सकता है।
उत्पत्ति:- दालचीनी की उत्पत्ति अथवा पौधें की तैयारी मूल युक्त कतरनों, एयर लेयरिंग तथा बीज द्वारा उत्पन्न पौधों द्वारा उत्पादित करते हैं।
कतरन:- दो पत्तियों सहित लगभग 10 से.मी. लंबी कम मजबूत लकड़ी की कतरनों को भी उचित तकनीक द्वारा पौधे के रूप में तैयार किया जाता है।
एयर लेयरिंग:- एयर लेयरिंग तने की कम मजबूत लकड़ी पर करते हैं। तने के कम पके हुए हिस्से से छाल को गोलाई से अलग कर उचित तकनीक द्वारा पौधे के रूप में विकसित करते हैं।
बीज द्वारा उत्पादित पौधे:- पूर्ण रूप से पके हुए फल को तोड़कर अथवा जमीन पर गिरे हुए फलों को एकत्र कर।
बीज अलग कर लेते हैं तथा बिना देरी के बीज की बुआई कर देते हैं। इन बीजों को बालू, मृदा तथा सड़ा हुआ गाय के गोबर का मिश्रण (3:3:1) युक्त पॉलिथीन बैग में बुआई करते हैं।
भूमि की तैयारी एवं रोपण:- रोपण करने के लिए भूमि को अच्छे से साफ़ कर लें। 50*50 से.मी. के गड्ढे में 3*3 मी. की दूरी पर बना लें इन गड्ढों में कम्पोस्ट और ऊपरी मृदा को भर दे।
दालचीनी के पौधों का रोपण जून-जुलाई में करना चाहिए ताकि पौधे को मानसून का लाभ मिल सके।
दालचीनी की पौध सुरक्षा, कटाई एवं संसाधन।
खाद एवं संवर्धन:- वर्ष में दो बार जून-जुलाई और अक्तूबर-नवम्बर में घास-पात को निकलने हेतु निदाई-गुड़ाई करनी चाहिए, और अगस्त-सितम्बर में एक बार मिट्टी अच्छे से खोद देनी चाहिए।
प्रथम वर्ष में उर्वरकों की मात्रा साधारणतया 20 ग्राम नाइट्रोजन, 18 ग्राम पी-2 ओ-5 और 25 ग्राम के-2 ओ प्रति पौधा देना उचित माना जाता है।
दस वर्ष तथा उसके बाद उर्वरकों की मात्रा 10 गुणा बढ़ा देनी चाहिए। उर्वरकों को वर्ष में दो भाग में बांट लें तथा समान मात्रा मई-जून तथा सितम्बर-अक्तूबर में डालें।
पौध सुरक्षा, रोग एवं रोकथाम
पर्ण चित्ती एवं डाई बैंक – पर्ण चित्ती एवं डाई बैक रोग कोलीटोत्राकम ग्लोयोस्पोरियिड्स नामक किट द्वारा होता है।
बीजू अगंमारी – यह रोग डिपलोडिया स्पीसीस नामक किट द्वारा पौधों में पौधशाला के अंदर होता है।
भूरी अगंमारी – यह रोग पिस्टालोटिया पालमरम नामक किट द्वारा होता हैं।
कीट दालचीनी तितली – यह नए पौधों तथा पौधा शाला का प्रमुख कीट है तथा यह साधारणत: मानसून काल के बाद दिखयी देता है। बचाव हेतु लक्षण दिखने पर दवा का छिड़काव करना चाहिए।
लीफ माइनर – यह मानसून काल में पौधशाला के अंदर पौधों कोसर्वाधिक हानि पहुँचाने वाला कीट है।
रोकथाम हेतु नई पत्तों के निकलने पर 0.05% क्वनालफोस का छिड़काव करना प्रभावकारी होता है।
सुंडी तथा बीटल भी दालचीनी के नए पत्तों को छिटपुट रूप से खाते हैं। क्वनालफोस के छिड़काव से इसे नियंत्रित किया जा सकता है।
कटाई एवं संसाधन:- दालचीनी का पेड़ 10 से 15 मीटर ऊँचा होता हैं। समय समय पर उसकी काट छांट करते रहना अनिवार्य है।
जब पेड़ दो वर्ष का हो जाये तभी उसकी काट-छांट प्रारंभ कर देनी चाहिए। लगभग 4 वर्ष के उपरांत शाखाओंं में उत्तम छाल विकसित हो जाती है जिसका एक वर्ष बाद कटाई की जा सकती है।
दालचीनी के वृक्ष से पर्ण, छाल तथा तेल को क्रमशः पत्तियों एवं छाल को सुखा कर वाष्पीकरण करके प्राप्त किया जाता है।
एक हेक्टयेर में दालचीनी के पेड़ से 4 कि. ग्राम छाल तथा तेल निकाल सकते है।
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