परिचय:- हमारे देश में करेेेेलेे की खेती बहुत पुुुरानेे जमाने से होती आ रही है, ग्रीष्मकालीन सब्जियों में करेला अपना अलग महत्व रखता है। पौष्टिकता एवं औषधीय गुणों से परिपूर्ण होनेे के कारण यह काफी लोकप्रिय है। छोटे-छोटे टुकड़े करके धूप में सुखाकर रख लिया जाता हैं, जिनका बाद में बेमौसम की सब्जी के रूप में भी उपयोग किया जाता है।
जलवायु:- करेला की खेती के लिए आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। करेला अन्य कद्दू वर्गीय फसलों की तुलना में अधिक शीत सहन कर सकता है पर अधिक वर्षा नहीं, अतिवृष्टि से फसल की उपज कम हो जाती है। करेला की खेती के लिए उत्तर भारत तथा मध्य भारत की जलवायु उत्तम मानी गई है।
खेत की तैयारी:- करेला की खेती के लिए भूमि ऐसी हो जिसमें अम्ल एवं नमक का प्रतिशत सामान्य हो। अर्थात पी. एच. मान 6.5 से 8.00 के मध्य तथा मिट्टी में जीवांश की मात्रा अधिक हो, जो पौधों को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व उपलब्ध करवा सकें।
खेत की तैयारी करते समय 200 लीटर बायोगैस स्लरी अथवा 2000 लीटर जैविक खाद खेत में डालकर 4-5 दिन बाद मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करें। इसके बाद पूरे एक सप्ताह तक खेत को खुला छोड़ दें, पुनः तीन से चार बार देशी हल से जुताई कर पाटा लगाकर खेत को समतल करें।
फिर तीन-तीन फीट के अन्तराल पर 1 फीट गहरा तथा 2 फीट चौड़ा थावला बना लें। प्रत्येक थावले में 500 ग्राम वर्मी कम्पोस्ट के साथ 50 ग्राम कॉपर सल्फेट पाउडर और 200 ग्राम राख मिलाकर रखें फिर थावले को मिट्टी से ढ़क दें, तथा सिंचाई कर लें। सिंचाई के 5-6 दिन पश्चात करेला बीजों की बुआई कर दें। बुआई करते वक्त प्रत्येक थावले में 4 से 5 बीज डालें।
किस्में
कोयम्बटूर लौग– यह मुख्यतः दक्षिण भारत की किस्म है, इस किस्म के पौधे का फैलाव अधिक होता हैं। इसमें फलों की संख्या भी अधिक होती हैं, इसके फलों का औसत वजन 70 ग्राम होता है। उपज 40 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है।
कल्याणपुर बारहमासी- इसका विकास’ चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय द्वारा किया गया है। इस किस्म का फल आकर्षक होता है एंव रंग गहरा हरा होता है। इसे ग्रीष्म एवं वर्षा दोनों में उगाया जा सकता है, अर्थात् ये किस्म वर्ष भर उत्पादन दे सकने में समर्थ है। इसकी उपज प्रति एकड़ 60 से 65 क्विंटल तक होती है।
हिसार सेलेक्शन- यह पंजाब तथा हरियाणा में काफी लोकप्रिय है। वहां इसकी उपज 40 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है।
अर्का हरित– इसके फलों मेंं बीज बहुत कम होते हैं। यह किस्म ग्रीष्म एवं वर्षा दोनों ऋतुओं में उगाई जाती है।
करेला के खेत की सिंचाई एवं फसल की सुरक्षा।
खेत की सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई:- करेला की फसल में सिंचाई का काफी महत्व है। समय-समय पर सिंचाई करते रहना आवश्यक है। चुंकि करेला की फसल ग्रीष्म एवं वर्षा दोनों ऋतु में उगाई जाती है, तो खरपतवार अधिक संख्या में उगना स्वाभाविक हैं। अत: इनको खेत से निकालना भी जरूरी है, इसलिए खेत का नियमित अन्तराल पर निराई-गुड़ाई करते रहना आवश्यक है, ताकि फल-फूल अधिक से अधिक संख्या में आए।
खाद:- बीज बुआई के लगभग 3 सप्ताह बाद जब करेला के पौधे में 3-4 पत्ते निकलना शुरू हो जाये तो उस समय 2000 लीटर बायोगैस स्लरी या, 2000 लीटर जैविक खाद फसल को दें।
अगली बार जब पौधों पर फूल निकलने प्रारम्भ हो जाएं, उस समय पुन: उपरोक्त कुदरती खाद फसल को दें। इसी प्रकार जब करेला की फसल की पहली तुड़ाई प्रारम्भ हो, उस समय 200 किलोग्राम वर्मी कम्पोस्ट में 50 किलोग्राम राख मिलाकर फसल पर छिड़काव करें, ताकि फसल की उपज अधिक मिल सके।
फसल की सुरक्षा:- करेला की फसल में कीटों का प्रकोप कम होता है। किन्तु सावधानी हेतु नियमित अन्तराल पर कुदरती कीट नाशक का छिड़काव करते रहें। ताकि फसल उपज ज्यादा एंव उच्च गुणवत्ता के साथ प्राप्त हो।
रैड बीटल:- यह हानिकारक कीट है, जो करेला पर प्रारम्भिक अवस्था पर लगता है। यह कीट पत्तियों को खा कर पौधे की बढ़ाव को रोकता है। इसकी सूंडी खतरनाक होती है, यह करेला के पौधे की जड़ों को काटकर फसल को नष्ट कर देती है।
रोकथाम– रैड बीटल से करेले के फसल की सुरक्षा हेतु पतंजलि निम्बादी कीट रक्षक का प्रयोग प्रभावि है। 5 लीटर कीटरक्षक को 40 लीटर पानी में घोलकर, सप्ताह में दो बार छिड़काव करें।
पाउडरी मिल्ड्यू रोग:- यह रोग एरीसाइफी सिकोरेसिएटम के कारण होता है। इसकी वजह से करेले की बेल एंव पत्तियों पर सफेद गोलाकार जाल फैल जाता है, जो बाद में कत्थई रंग के हो जाता है। इस रोग में पत्तियां पीली हो जाती है और फिर सूख जाती है।
कुदरती उपचार– इस रोग से करेला की फसल को सुरक्षित रखने के लिए 5 लीटर खट्टी छाछ लें, उसमें 2 लीटर गौमूत्र और 40 लीटर पानी मिलाकर, छिड़काव करते रहना चाहिए। प्रति सप्ताह एक छिड़काव करें लगातार तीन सप्ताह तक छिड़काव करने से करेले की फसल पूरी तरह सुरक्षित हो जाती है।
एंथ्रेक्वनोज रोग:- करेला फसल में यह रोग सबसे अधिक पाया जाता है। इस रोग से ग्रसित पौधे में पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं, जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण क्रिया में असमर्थ हो जाता है, फलस्वरुप पौधे का विकास अच्छी तरह से नहीं हो पाता।
कुदरती उपचार– रोग की रोकथाम हेतु एक एकड़ फसल के लिए 10 लीटर गौमूत्र में 4 किलोग्राम आडू पत्ते एवं 4 किलोग्राम नीम के पत्ते में 2 किलोग्राम लहसुन को उबाल कर ठण्डा कर 40 लीटर पानी में इसे मिलाकर छिड़काव करने से यह रोग पूरी तरह फसल से समाप्त हो जाता है ।
फसल की तुड़ाई:-करेला फलों की तुड़ाई कोमल अवस्था में हीं कर लेनी चाहिए। वैसे करेला बुआई के 90 दिन पश्चात फल तोड़ने लायक हो जाते हैं, फल तुड़ाई का कार्य सप्ताह में 2 से 3 बार हीं करना चाहिए।
उपज:- इस प्रकार की खेती में करेले की उपज 55 क्विंटल प्रति एकड़ तक प्राप्त की जा सकती है।
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I hate karela thou but still the information is great🔥👍
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Nice work 👍🏻👍
बहु उपयोगी 👏👏
Phle mujhe karela psnd nhi tha .. pr ab bhai n aise mhtav btaye hai ki ab mujhe karela bahuprita hogya
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Karele ke medicinal use jaan ne k baad ab yeh itna bitter nhi lgega.👌