लौकी की खेती, सिंचाई तथा खास रोग व रोकथाम।

लौकी के फलों की तोड़ाई मुलायम हालत में करनी चाहिए। फलों का वजन किस्मों पर निर्भर करता है। फलों की तोड़ाई डंठल लगी अवस्था में किसी तेज चाकू से करनी चाहिए। तोड़ाई 4 से 5 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए ताकि पौधों पर ज्यादा फल लगें। औसतन लौकी की उजप 350 से 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।

परिचय:- ताजगी से भरपूर लौकी एक खास सब्जी है। इसे बहुत तरह के व्यंजन जैसे रायता, कोफ्ता, हलवा व खीर वगैरह बनाने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं, यह औषधीय गुणों से भी भरपूर है।

यह कब्ज को कम करने, पेट को साफ करने, खांसी या बलगम दूर करने में बहुत फायदेमंद है। इसके मुलायम फलों में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट व खनिजलवण के अलावा प्रचुर मात्रा में विटामिन पाए जाते हैं। लौकी की खेती पहाड़ी इलाकों से लेकर दक्षिण भारत के राज्यों तक की जाती है। निर्यात के लिहाज से सब्जियों में लौकी महत्वपूर्ण है।

ताजगी से भरपूर लौकी एक खास सब्जी है। इसे बहुत तरह के व्यंजन जैसे रायता, कोफ्ता, हलवा व खीर वगैरह बनाने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं, यह औषधीय गुणों से भी भरपूर है।
लौकी की खेती

जलवायु:- अच्छी पैदावार हेतु गरम व आर्द्रता वाली जलवायु आदर्श है। इसे जायद व खरीफ दोनों मौसमों में आसानी से उगाई जाती है। बीज जमने के लिए 30-35 और पौधों की बढ़वार के लिए 32 से 38 डिगरी सेंटटीग्रेड तापमान उचित  है।

मिट्टी:- बलुई, दोमट तथा जीवांश युक्त चिकनी मिट्टी जिसमें पानी सोखने की छमता अधिक हो तथा पीएच मान 6.0-7.90 हो, लौकी की खेती के लिए आदर्श है।

खेत की तैयारी:- पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। बाद में 2 से 3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करें, हर जुताई के बाद खेत में पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी कर ले ,ताकि खेत में सिंचाई करते समय पानी बहुत कम या ज्यादा न लगे।

खाद व उर्वरक:- अच्छी उपज हेतु 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 35 किलोग्राम फास्फोरस व 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर आदर्श है। नाइट्रोजन की आधी  तथा फास्फोरस की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय। बची हुई नाइट्रोजन 2 बार में , पौधे के विकास के समय तथा फूल बनने पर दें।

बीज की मात्रा:- सीधी बीज बोआई के लिए 2.5-3 किलोग्राम बीज 1 हेक्टेयर के लिए काफी होता है। पौलीथीन के थैलों या नियंत्रित वातावरण युक्त गृहों में नर्सरी उत्पादन करने के लिए प्रति हेक्टेयर 1 किलोग्राम बीज ही काफी होता है।

बुआई का समय:- आमतौर पर लौकी की बुआई जायद में 15-25 फरवरी और बरसात यानी खरीफ में 15 जून से 15 जुलाई तक कर सकते हैं। पहाड़ी इलाकों में बुआई मार्च-अप्रैल के महीनों में की जाती है।

बुआई की विधि:- लौकी की बुआई के लिए गरमी के मौसम में 2.5-3.5 मीटर व बारिश के मौसम में 4-4.5 मीटर की दूरी पर 50 सेंटीमीटर चौड़ी व 20 से 25 सेंटीमीटर गहरी नालियां बना लेते हैं। इन नालियों के दोनों किनारे पर गरमी में 60 से 75 सेंटीमीटर व बारिश में 80 से 85 सेटीमीटर फासले पर बीजों की बोआई करते हैं। 1 जगह पर 2 से 3 बीज 4 सेंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए।

सिंचाई:- खरीफ मौसम में खेत की सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती, पर बारिश न होने पर 10 से 15 दिनों के बाद सिंचाई की जरूरत पड़ती है। अधिक बारिश की हालत में पानी निकालने के लिए नालियों का गहरा व चौड़ा होना जरूरी है, गरमी में ज्यादा तापमान होने के कारण 4 से 5 दिनों के फासले पर सिंचाई करनी चाहिए।

निराई-गुड़ाई:- आमतौर पर खरीफ मौसम में या सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आते हैं अतः 25 से 30 दिनों में निराई कर के निकाल देना चाहिए। पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए 2 से 3 बार निराई-गुड़ाई कर के जड़ों के पास मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए। रासायनिक खरपतवारनाशी के रूप में व्यूटाक्लोरा रसायन की 2 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के तुरंत बाद छिड़कनी चाहिए।

लौकी के कीड़ों की रोकथाम।

कीड़ों की रोकथाम:- सूंड़ी जमीन के अंदर पाई जाती है। इसकी सूंड़ी व प्रौढ़ दोनों जमीन के अंदर पाए जाते हैं। सूंड़ी व वयस्क दोनों ही नुकसान करते हैं। ये प्रौढ़ पौधों की छोटी पत्तियों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। सूंड़ी पौधों की जड़ काट कर नुकसान पहुंचाती है, प्रौढ़ कीट खासतौर पर मुलायम पत्तियां अधिक पसंद करते हैं। इस कीट के अधिक आक्रमण से पौधे पत्ती रहित हो जाते हैं।

सूंड़ी जमीन के अंदर पाई जाती है। इस की सूंड़ी व प्रौढ़ दोनों जमीन के अंदर पाए जाते हैं। सूंड़ी व वयस्क दोनों ही नुकसान करते हैं। ये प्रौढ़ पौधों की छोटी पत्तियों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। सूंड़ी पौधों की जड़ काट कर नुकसान पहुंचाती है।
लौकी

रोकथाम

सुबह ओस पड़ने के समय राख का बुरकाव करने से प्रौढ़ कीट पौधों पर नहीं बैठते हैं, जिससे नुकसान कम होता है।

जैविक विधि से रोकथाम के लिए अजादीरैक्टिन 300 पीपीएम 5 से 10 मिलीलीटर या अजादीरैक्टिन 5 फीसदी 0.5 मिलीलीटर की दर से 2 या 3 बार छिड़कने से फायदा होता है।

इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर डाईक्लोरोवास 76 ईसी 1.25 मिलीलीटर या ट्राइक्लोफेरान 50 ईसी 1 मिलीलीटर या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एमएल 0.5 मिलीलीटर की दर से 10 दिनों के अंतराल पर छिड़कें।

फल मक्खी– इस कीट की सूंड़ी नुकसान करती है, प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है। इसके सिर पर काले व सफेद धब्बे पाए जाते हैं। प्रौढ़ मादा छोटे मुलायम फलों के अंदर अंडे देना पसंद करती है। अंडों से ग्रब्स सूंड़ी निकल कर फलों के अंदर का भाग खा कर खत्म कर देते हैं, कीट फल के जिस भाग पर अंडे देते हैं, वह भाग वहां से टेढ़ा हो कर सड़ जाता है और नीचे गिर जाता है।

रोकथाम

गरमी की गहरी जुताई या पौधे के आसपास खुदाई करें ताकि मिट्टी की निचली परत खुल जाए जिस से फलमक्खी का प्यूपा धूप द्वारा नष्ट हो जाए।

फल मक्खी द्वारा खराब किए गए फलों को इकट्ठा कर के खत्म कर देना चाहिए।

नर फल मक्खी को नष्ट करने के लिए प्लास्टिक की बोतलों को इथेनाल कीटनाशक डाइक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान क्यूल्यूर को 6:1:2 के अनुपात के घोल में लकड़ी के टुकड़े को डुबा कर 25 से 30 फंदे खेत में स्थापित कर देने चाहिए।

कार्बारिल 50 डब्यूपी, 2 ग्राम प्रति लीटर पानी या मैलाथियान 50 ईसी 2 मिलीलीटर प्रतिलीटर पानी को ले कर 10 फीसदी शीरा या गुड़ में मिला कर जहरीले चारे को 1 हेक्टेयर खेत में 250 जगहों पर इस्तेमाल करना चाहिए।

प्रतिकर्षी 4 फीसदी नीम की खली का इस्तेमाल करें, जिससे जहरीले चारे की ट्रैपिंग की कूवत बढ़ जाए। जरूरतानुसार कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीलीप्रोल 18.5 एससी 025 मिलीलीटर या डाईक्लारोवास 76 ईसी 1.25 मिलीलीटर का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव कर सकते हैं।

खास रोग व रोकथाम।

चूर्णिल आसिता:- रोग की शुरुआत में पत्तियों और तनों पर सफेद या धूसर रंग पाउडर जैसा दिखाई देता है। कुछ दिनों के बाद ये धब्बे चूर्ण भरे हो जाते हैं। सफेद चूर्णी पदार्थ आखिर में समूचे पौधे की सतह को ढक लेता है, अधिक प्रकोप के कारण पौधे जल्दी बेकार हो जाते है। फलों का आकार छोटा रह जाता है।

रोकथाम – इसकी रोकथाम के लिए खेत में फफूंदनाशक दवा जैसे 0.05 फीसदी ट्राइडीमोर्फ 1 लीटर पानी में घोल कर 7 दिनों के फासले पर छिड़काव करें। इस दवा के न होने पर फ्लूसिलाजोल 1 ग्राम प्रति लीटर पानी या हेक्साकोनाजोल 1.5 मिलिलीटर पानी की दर से छिड़काव करें।

मृदुरोमिल फफूंदी:- यह रोग बारिश वाली व गरमी वाली फसलों में बराबर लगता है। उत्तरी भारत में इस रोग का हमला ज्यादा होता है। इस रोग की खास पहचान पत्तियों पर कोणीय धब्बे पड़ना है। ये कवक पत्ती के ऊपरी भाग पर पीले रंग के होते है और नीचे की तरफ रोएंदार बढ़वार करते हैं।

रोकथाम – बचाव के लिए बीजों को मेटलएक्सिल नामक कवकनाशी की 3 ग्राम दवा से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए। और मैंकोजेब 0.25 फीसदी का छिड़काव रोग की पहचान होने के एकदम बाद फसल पर करना चाहिए।

यदि संक्रमण भयानक हालत में हो तो मैटालैक्सिल व मैंकोजेब का 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से या डाइमेयामर्फ का 1 ग्राम प्रति लीटर पानी व मैटीरैम का 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 7 से 10 दिनों के फासले पर 3 से 4 बार छिड़काव करें।

फलों की तोड़ाई व उपज:- लौकी के फलों की तोड़ाई मुलायम हालत में करनी चाहिए। फलों का वजन किस्मों पर निर्भर करता है।

फलों की तोड़ाई डंठल लगी अवस्था में किसी तेज चाकू से करनी चाहिए। तोड़ाई 4 से 5 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए ताकि पौधों पर ज्यादा फल लगें। औसतन लौकी की उजप 350 से 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।

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