परिचय:- बीन्स लता वाले समूह का एक पौधा है, जिस पर लगने वाली फलियों को बीन्स कहते है। यह एक प्रमुख हरी सब्जी है। इसका रंग हरा, पीला और सफ़ेद होता है। जो अलग-अलग आकार में पाई जाती हैं, इसकी फलियों में औषधीय गुण पाए जाते हैं। अतः खाने से मनुष्य को कई रोगों से छुटकारा मिलता है। इसके पौधों का इस्तेमाल हरी खाद बनाने में भी किया जाता है।
उपयुक्त मिट्टी:- जल निकासी वाली उपजाऊ भूमि खेती के लिए उत्तम मानी गई है। लेकिन अधिक पैदावार के दृश्टिकोण से काली चिकनी मिट्टी में उगाना चाहिए, मिट्टी का पी.एच. मान 5.5-6.5 के बीच होना चाहिए।
जलवायु और तापमान:- बीन्स की खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त मानी गई है। इसके पौधों के उत्तम विकास के लिए ठंड की जरूरत होती है, और सर्दियों में पड़ने वाले पाले को ये पौधे सहन करने में समर्थ हैं। लेकिन पाला अधिक समय तक गिरने से पैदावार प्रभावित होती है। इसके पौधे के लिए गर्मी तथा बारिश उपयुक्त नही होती।

खेती के लिए तापमान 15 से 25 डिग्री तक उपयुक्त होता है, इसके बीजों को अंकुरण के लिए 20 डिग्री के आसपास तापमान की जरूरत होती है। गर्मियों में इस पौधा का 30 डिग्री तापमान पर भी आसानी से विकास हो पाता है। लेकिन इससे ज्यादा तापमान नुकसानदायक है।
उन्नत किस्में:- बीन्स के अनेक किस्म हैं, जिन्हें उनकी पैदावार, आदर्श वातावरण और पौधों के आधार पर बाँटा गया है।
झाड़ीदार किस्में – इस तरह के पौधे झाड़ी के रूप में पाए जाते हैं। जिनको अधिकतर पर्वतीय भागों में उगाया जाता है।
स्वर्ण प्रिया – इसकी फलियाँ सीधी, लम्बी, चपटी और मुलायम रेशेरहित होती है। जिनका रंग हरा होता है, इसके पौधे रोपाई के लगभग 50 दिन बाद फली देने लगते हैं। इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 11 टन है।
अर्का संपूर्णा – इस किस्म का विकास भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर द्वारा किया गया है। इनके पौधों पर रतुआ और चूर्णिल फफूंद रोग नही लगता है। रोपाई के लगभग 50 से 60 दिन बाद पैदावार शुरू हो जाता है। प्रति हेक्टेयर उत्पादन 8 से 10 टन के होता है।
आर्क समृद्धि – इस किस्म का विकास भी भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर द्वारा किया गया है। इस किस्म की फलियां हरे रंग की होता है, जो गोल व लम्बी होती है। इसमें मोटे छिलके होते हैं। प्रति हेक्टेयर उत्पादन 19 टन तक पाया जाता है।
बेलदार किस्मे – बेलदार किस्मों के पौधे लता के रूप में होती है। जिनकी अधिकतर खेती मैदानी भागों में की जाती है।
स्वर्ण लता – इसके पौधों पर लगने वाली फलियां लम्बी, मोटी तथा गुद्देदार होती है, तथा रंग हरा होता है। इस किस्म के पौधे रोपाई के 60 दिन बाद पैदावार देना शुरू कर देते हैं। उत्पादन प्रति हेक्टेयर 12 से 14 टन के बीच है।
अर्का कृष्णा – इस किस्म का प्रयोग अगेती फसल को उगाने में किया जाता है। इसके पौधे सूर्य के तेज प्रकाश को सहन नही कर पाते हैं। इस पर फल गुच्छों में लगते हैं, रंग गहरा हरा होता है। उत्पादन प्रति हेक्टेयर 30 टन तक पाया जाता हैं।
बीन्स रोपने का तरीका एवं खरपतवार नियंत्रण।
इसके बीजों को रोपने का कार्य हाथ से अथवा ड्रिल के माध्यम से किया जा सकता है। बीज को खेत में लगाने से पहले उपचारित कर लेना चाहिए। बीज को उपचारित करने के लिए कार्बेन्डाजिम, थीरम या गोमूत्र का इस्तेमाल करना चाहिए। एक हेक्टेयर में रोपाई के लिए 85 – 100 किलो बीज उचित है।
इसकी खेती के लिए रोपाई समतल में की जाती है। समतल में इसके बीजों को पंक्तियों में ड्रिल के माध्यम से उगाया जाता है।
इसके बीजों की रोपाई अलग-अलग महीनों में जगहों के आधार पर की जाती है, उत्तर पश्चिमी राज्यों में सितम्बर, उत्तर पूर्वी राज्यों में अक्टूबर के लास्ट से नवम्बर प्रारंभ तथा पहाड़ी क्षेत्रों में जून और जुलाई और दक्षिण भारत में इसे सर्दियों के मौसम में की जाती है।
पौधों की सिंचाई:- इसके पौधों को पानी की सामान्य जरूरत होती है। इसके बीजों को सुखी भूमि में उगाने के तुरंत बाद सिचाई कर देनी चाहिए। उसके बाद बीज के अंकुरित होने तक खेत में नमी बनी रहे, इसके लिए तीन से चार दिन के अंतराल में हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए। पौधे के विकास के दौरान 20 से 25 दिन के अंतराल में सिंचाई आवश्यक है।

उर्वरक की मात्रा:- जुताई के वक्त 10 से 12 गाड़ी सड़ी हुई पुरानी गोबर की खाद को खेत में डालकर मिला दें। रासायनिक खाद में डी.ए.पी. की लगभग 60 किलो प्रति एकड़ खेत की आखिरी जुताई के वक्त देना चाहिए। जब पौधे पर फूल बनने लगे तब 25 किलो यूरिया प्रति एकड़ सिंचाई के साथ देना चाहिए, इससे पैदावार अच्छी होती है।
खरपतवार नियंत्रण:- खरपतवार नियंत्रण रासायनिक और प्राकृतिक दोनों तरीके से की जाती है। रासयनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथलीन का छिड़काव बीज रोपाई के तुरंत बाद करना चाहिए। जबकि प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए निराई-गुड़ाई की जाती है। बीन्स की खेती में दो गुड़ाई काफी होती है, पहली रोपाई के 20 दिनों बाद तथा दूसरी गुड़ाई, पहली गुड़ाई के लगभग 15 से 20 दिन बाद करनी चाहिए।
रोग और रोकथाम
बीन्स के पौधों में अनेक प्रकार के रोग पाए जाते हैं।
तना गलन – तना गलन पौधों पर जल भराव और वायरस के कारण होता है। जिसका प्रभाव पौधे के अंकुरण के वक्त ज्यादा दिखाई देता है। इस रोग में पौधे की पत्तियों पर भूरे पीले रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं।
इस रोग के रोकथाम हेतु पौधों की जड़ों में कार्बेन्डाजिम का छिडकाव करना चाहिए।
मोजेक – इसमें पौधे की पत्तियां सिकुड़ने लगती हैं, तथा हरे व पीले रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं। इससे पौधे की वृद्धि रुक जाती है।
इस रोग के रोकथाम हेतु पौधे को उखाड़कर नष्ट कर दे या रोगोर का छिडकाव पौधों पर करें।
फली छेदक – इसकी वजह से पैदावार को अधिक नुकसान पहुँचता है। इस रोग में लार्वा फलियों में छेद कर कच्चे बीजों को खा जाते हैं। जिससे पैदावार ख़राब हो जाती है।
इसके रोकथाम के लिए पौधों पर नीम के काढ़े का छिडकाव करना चाहिए। इसके अलावा पौधों पर नुवाक्रान का छिडकाव भी कर सकते हैं।
फलियों की तुड़ाई:- बीन्स की फलियों को पकने से हीं पहले तोड़ा जाता है। इसके तुड़ाई बाज़ार की मांग के आधार पर करनी चाहिए।
पैदावार और लाभ:- बीन्स की खेती लगभग तीन महीने की होती है। इसकी औसतन पैदावार 15 टन प्रति एकड़ के आसपास पाई जाती है। जिनका भाव बाजार में खुदरा 30 रूपये प्रति किलो तक पाया जाता है। जिससे प्रति हेक्टेयर तीन लाख तक की कमाई हो जाती है।
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Very nice bhau
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Awsm
Nice bro🌞
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Spicy 🔥🔥🔥
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Pleased to know that beans have medicinal uses.