खीरा की खेती, पैदावार तथा व्यापारिक महत्व।

खीरा के फल कोमल एवं मुलायम अवस्था में तोड़ने चाहिए।फलों की तुड़ाई 2 से 3 दिनों के अन्तराल पर करते रहना चाहिए।समय पर फल तुड़ाई से पैदावार में बढ़ोतरी पाई गई है।

परिचय:- खीरा की उत्पत्ति मूलतः भारत से ही हुई है, और लता वाली सब्जियों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इसके फलों का उपयोग मुख्य रूप से सलाद के लिए किया जाता है। इसके फलों के 100 ग्राम खाने योग्य भाग में 96.3 प्रतिशत जल, 2.7 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 0.4 प्रतिशत प्रोटीन, 0.1 प्रतिशत वसा और 0.4 प्रतिशत खनिज पदार्थ पाया जाता है। इसके अलावा इसमें विटामिन बी की प्रचुर मात्राएँ पाई जाती हैं।

खीरा की उत्पत्ति मूलतः भारत से ही हुई है। और लता वाली सब्जियों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इसके फलों का उपयोग मुख्य रूप से सलाद के लिए किया जाता है।
खीरा

इसके फलों का स्वभाव ठंडा है, यह कब्ज जैसी पेट संबंधी बीमारियों को दूर करने में सहायक है। खीरे के रस का उपयोग करके कई तरह के सौन्दर्य प्रसाधन बनाये जा रहे हैं। देश के सभी क्षेत्रों में इसकी खेती प्राथमिकता के आधार पर की जाती है।

उपयुक्त जलवायु:- इसकी खेती के लिए सर्वाधिक तापमान 40 डिग्री सेल्सियस और न्यूनतम 20 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। अधिक वर्षा, आर्द्रता और बदली होने से कीटों व रोगों के प्रसार में वृद्धि होती है।

भूमि का चयन:- खीरा की खेती के लिए बलुई दोमट या दोमट भूमि में की जाती है। जल निकास का उचित प्रबंधन होना सर्वोत्तम माना गया है। भूमि में कार्बन की मात्रा अधिक तथा पी एच मान 6.5 से 7 होना चाहिए। खीरा मुख्य रूप से गर्म जलवायु की फसल है, इस पर पाले का प्रभाव अधिक होता है।

उन्नत किस्में:- स्वर्ण अगेती, स्वर्ण पूर्णिमा, पूसा उदय, पूना खीरा, पंजाब सलेक्शन, पूसा संयोग, पूसा बरखा, खीरा 90, कल्यानपुर हरा खीरा, कल्यानपुर मध्यम और खीरा 75, पीसीयूएच- 1, स्वर्ण पूर्णा और स्वर्ण शीतल आदि प्रमुख है।

विदेशी किस्में– जापानी लौंग ग्रीन, चयन, स्ट्रेट- 8 और पोइनसेट आदि प्रमुख है।

खेत की तैयारी:- खीरा की फसल की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए। उसके बाद 2 से 3 जुताई हैरो या कल्टीवेटर से कर के मिट्टी को भुरभुरा बनाकर पाटा लगा देना चाहिए। आखिरी जुताई से पहले 15 से 20 टन गोबर( प्रति हेक्टेयर) की गली सड़ी खाद या कम्पोस्ट मिटटी में भली भाती मिला देनी चाहिए।

खीरा की फसल की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए। उसके बाद 2 से 3 जुताई हैरो या कल्टीवेटर से कर के मिट्टी को भुरभुरा बनाकर पाटा लगा देना चाहिए।
खीरा की खेती

खाद और उर्वरक:- उर्वरक सदा मिट्टी की जाँच के अनुसार देनी चाहिए। सामान्यतः 15 से 20 टन गोबर की गली सड़ी खाद या कम्पोस्ट के साथ-साथ 80 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 60 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर पर्याप्त है। फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुआई के समय मेड़ पर देना। बचे हुए नाइट्रोजन की मात्रा दो बराबर भागों में बाँटकर बुआई के 20 और 40 दिनों बाद गुड़ाई के साथ देकर मिट्टी चढ़ा देने से बेहतर परिणाम मिलेंगे।

बुआई का समय:- मैदानी क्षेत्रों में बुआई  के लिए फरवरी से जून का प्रथम सप्ताह उत्तम है। उत्तर भारत के पर्वतीय भागों में इसकी बुआई अप्रैल से मई में की जाती है। गर्मी की फसल को जल्दी लेने के लिए पालीथीन या प्रो-ट्रे की थैलियों में जनवरी में पौध तैयार कर फरवरी में रोपण करते है।

बीज की मात्रा:- एक हेक्टेयर क्षेत्र की बुआई के लिए 2 से 3.25 किलोग्राम शुद्ध बीज की आवश्यकता पड़ती है। बीज की बुआई करने से पहले फफूंदनाशक दवा जैसे कैप्टान या थिरम (2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) से अच्छी तरह शोधित करना चाहिए।

बुआई की विधि:- अच्छी तरह से तैयार खेत में 1.5 मीटर की दूरी पर मेड़ बना लें, मेड़ों पर 60 से 90 सेंटीमीटर की दूरी पर बीज बोने के लिए गढ्ढे बना ले और 1 सेंटीमीटर की गहराई पर प्रत्येक गढ्ढे में 2 बीजों की बुआई करें।

खीरा की सिंचाई प्रबंधन, खरपतवार तथा कीट नियंत्रण।

सिंचाई प्रबंधन:- बुआई के समय खेत में नमी पर्याप्त मात्रा में रहनी चाहिए, अन्यथा बीजों का जमाव एवं वृद्धि अच्छी प्रकार से नही होती है। बरसात वाली फसल के लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। औसतन गर्मी की फसल को 5 दिन और सर्दी की फसल को 10 से 15 दिनों पर पानी देना चाहिए। तने की वृद्धि, फूल आने के समय और फल की बढ़वार के समय पानी की कमी नहीं होनी चाहिए।

खरपतवार नियन्त्रण:- किसी भी फसल की अच्छी पैदावार लेने की लिए खेत में खरपतवारो का नियंत्रण करना बहुत जरुरी है। इसी तरह खीरे की भी अच्छी पैदावार लेने के लिए खेत को खरपतवारों से साफ रखना चाहिए। इसके लिए बरसात में 3-4 बार खेत की निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।

कीट नियंत्रण

एफिड– यह अत्यंत छोटे-छोटे व हरे रंग के कीट होते है, जो पौधो के कोमल भागों का रस चूसते है। इन कीटो की संख्या में तीव्र गति से वृद्धि होती है, ये विषाणु रोग फैलाने में सहायक होते है।

इनके रोकथाम हेतु फ्लोनिकामाइड 50 प्रतिषत डब्लू जी 150 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।

फल मक्खी– अधपके या पके फल इस कीट के कारण सड़ जाते है।

इसके नियंत्रण हेतु कारटाफ एस पी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए।

पत्ती खाने वाली सुंडी– यह कीट पत्तियों को खाकर क्षति पहुचाते है। जिससे खीरा फसल को भारी क्षति पहुचती है।

इसके नियंत्रण हेतु क्लोरोपाइरीफास का छिड़काव करना चाहिए।

लालड़ी– पीली भूरी रंग की मूंग द्वारा पत्तियों को क्षति पहुचाया जाता है। पत्तियों छलनी जैसी हो जाती है, इसके लार्वा पौधो के जमीन के समीप से काटते है।

रोकथाम हेतु थायोक्लोरोपिड 1.5 मिलीलीटर प्रति पानी की दर से छिड़काव करें।

रोग तथा नियंत्रण


आर्द्र विगलन– यह रोग फफूंदी जनित होता है, इस रोग के कारण बीज का अंकुरण नही होता है, थोड़े बड़े पौधे रोगग्रस्त होने पर जमीन पर लेट जाते है।

नियंत्रण– रोकथाम हेतु बीज को मैन्कोजेब नामक फफूंदनाशक से उपचारित करना चाहिए।

मृदुरामिल आसिता– यह रोग भी फफूंदी जनित रोग है। रोग के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों के उपरी सतह पर हल्के पीले रंग के कोणीय धब्बो के रूप में दिखाई पड़ते है। इन धब्बो के नीचे पत्ती की निचली सतह पर फफूंदी रूई के समान बैगनी रंग की दिखाई पड़ती है। रोगी पौधे बौने रह जाते है, फल का आकार छोटा रह जाता है।

नियंत्रण

1. खीरा वर्गीय सब्जियों को प्रतिवर्ष एक ही खेत में ना उगाए।

2. फसल समाप्त होने पर अवषेष को जला दें।

3. मैन्कोजेब दवा 625 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

फल विगलन– इस रोग के कारण पहले फूल सड़ जाते है। कुछ समय उपरान्त फूलो पर फफूंदी का रूई जैसा जाल दिखाई देने लगता है, बाद में यह रोग फलो पर फैल जाता है और उन्हे सड़ा देता है, भागो पर फफूंद की बढ़वार रूई जैसी बैगनी काले रंग की दिखाई पड़ती है। अधिक नमी तथा उच्च तापमान होने पर रोग का प्रकोप अधिक होता है।

इस रोग के कारण पहले फूल सड़ जाते है। कुछ समय उपरान्त फूलो पर फफूंदी का रूई जैसा जाल दिखाई देने लगता है, बाद में यह रोग फलो पर फैल जाता है और उन्हे सड़ा देता है।रोगी भागो पर फफूंद की बढ़वार रूई जैसी बैगनी काले रंग की दिखाई पड़ती है।
खीरा

नियंत्रण– जल निकास का उचित प्रबंध करें, लताओ को चढ़ाने हेतु बांस या सीमेंट के खम्भो और रस्सी के माध्यम से सहारा दें।

चूर्णी फफूंदी:- इस रोग का आक्रमण 15 से 23 दिन पुराने पत्तियों पर अधिक होता है। इस रोग का प्रसार एक से दूसरे स्थान पर वायु द्वारा होता है। पुरानी पत्तियों की निचली सतह पर सफेद धब्बे उभर जाते है। इन पत्तियों की सामान्य वृद्धि रूक जाती है तथा पत्तियां पीली पड़ जाती है। पत्तियां हरिमाहीन हो जाती है और पौधा मर जाता है।

नियंत्रण– रोकथाम हेतु जैसे ही रोग के लक्षण दिखाई दे सल्फेक्स 2 किलोग्राम, कैराथेन 600 मिलीलीटर को 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

फलों की तुड़ाई:- खीरा के फल कोमल एवं मुलायम अवस्था में तोड़ने चाहिए। फलों की तुड़ाई 2 से 3 दिनों के अन्तराल पर करते रहना चाहिए। समय पर फल तुड़ाई से पैदावार में बढ़ोतरी पाई गई है।

पैदावार:- खीरा की पैदावार किस्म के चयन, फसल प्रबंधन और अनुकूलता पर निर्भर करती है। फिर भी उपरोक्त वैज्ञानिक तकनीक से खीरा की खेती करने पर औसत पैदावार 200 से 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है। संकर किस्मों की पैदावार इससे अधिक प्राप्त होती है। इसलिए आज कल ये किसान भाइयों की पहली पसंद है। इसकी खेती से किसान लाखों की आमदनी कर सकते हैं।

फसलबाज़ार

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