परिचय:- भारत में ओल की खेती औषधीय फसल के रूप में की जाती है। इसे जिमीकंद या सूरन के नाम से भी जाना जाता है। हमारे घरों में इसकी सब्जी और चटनी के रूप में इसका इस्तेमाल किया जाता है।
ओल में कार्बोहाइड्रेट, खनिज, कैल्शियम, फॉस्फोरस समेत अनेक तत्व पाए जाते है। आयुर्वेदिक दवाओं के उत्पादन में इसका उपयोग बड़े पैमाने पर किया जाता हैं। इसके फल जमीन के अंदर ही कंद के रूप में विकसित होते हैं।
इसको खाने से गले में खुजली हो जाती है, लेकिन अब इसकी प्रतिरोधी कई नई किस्मों का ईजाद किया गया है जिसको खाने से खुजली नहीं होती है।
जलवायु:- इसकी खेती करने के लिए नम गरम तथा ठंडे शुष्क दोनों मौसमों की आवश्यकता होती है। ऐसे मौशम में इसके पौधों व कंदों का विकास अच्छी तरह होता है।
बुआई के वक्त बीजों के अंकुरण के लिए ऊंचे तापमान की आवश्यकता होती है, पौधे की अच्छी बढ़वार के लिए इस समय अच्छी बारिश होना जरूरी है।
उपयुक्त मिट्टी:- ओल की खेती के लिए रेतीली दोमट मिट्टी उत्तम मानी जाती है, इसमें कंदों की बढ़ोतरी तेजी से होती है। खेतों में जलनिकास का प्रबंधन अच्छा होना चाहिए।
चिकनी और रेतीली जमीन में कंदों का विकास रुक जाता है, अतः ऐसी जमीन में खेती न करें।
खेत की तैयारी:- इसकी खेती करते वक्त मिट्टी का भुरभुरा और नर्म होना आवश्यक है। अतः खेत की पहली जुताई गहरी मिट्टी पलटने वाले हलों से करनी चाहिए।
इसके बाद कुछ दिनों तक खेत को खुला छोड़ दें, फिर पुरानी गोबर की खाद को मिट्टी में मिला दें। इसके बाद खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर ,पानी चलाकर पलेवा कर दें।
खेत की मिट्टी के ऊपर से हल्की सूख जाने के बाद कल्टीवेटर के माध्यम से एक बार जुताई कर दे। रासायनिक खाद को उचित मात्रा में देने के बाद रोटावेटर चलाए तथा नाली बनाकर खेत को रोपाई के लिए तैयार कर लें।
ओल(सूरन) की किस्में एवं सिंचाई।
उन्नत किस्में:- जिमीकंद, सूरन या ओल की कई उन्नत किस्में ईजाद की गई हैं। इनको गुणवत्ता, पैदावार तथा मौसम के आधार पर तैयार किया गया है। इसका चयन खेती के क्षेत्र की जलवायु पर निर्भर करता है।
बीजों की रोपाई:- ओल के बीज उसके फलों से ही बनते हैं। खेत में पके हुए फल को कई भागों में काटकर लगाया जाता है।
रोपाई से पहले बीजों को स्ट्रेप्टोसाइक्लीन या इमीसान की उचित मात्रा के घोल में आधा घंटे तक डुबोकर रख दें, बीजों का वजन लगभग 250 से 500 ग्राम होना चाहिय।
प्रत्येक कटे हुए बीज में कम से कम दो आंखे होनी चाहिए। पौधों का अंकुरण इनके आँखों के माध्यम से हीं होता है। बीज रोपाई नालियों में की जाती है नालियों के बीच 2.5 फिट तथा बीजों की दूरी 2 फिट हो।
सिंचाई:- इसमें सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है, ताकि इसके कंदों का विकास अच्छे से हो जाए।
बीज को खेत में लगाने के बाद अंकुरण तक नमी बनाए रखे। इसके लिए खेत में सप्ताह में दो से तीन सिंचाई आवश्य करें।
गर्मियों में चार से पांच दिनों के अंतराल में तथा सर्दियों में 15 से 20 दिनों के अंतराल में पानी देना चाहिए, बरसात में आवश्यकता नहीं रहती है।
खुदाई:- बीज रोपाई के करीब 6 से 8 महीने बाद कंद पक कर तैयार हो जाते हैं। जिसके बाद पौधे के नीचे की पत्तियां सूखकर गिरने लगती हैं।
ये फलों के पकने का सूचक होता है ऐसे में फलों की खुदाई कर लेनी चाहिए। इसके बाद उन्हें साफ़ पानी से धोकर छायादार स्थान पर सूखा दें।
पैदावार:- फसल की अच्छी पैदावार उसकी देख-रेख और उन्नत किस्मों पर निर्भर करती है।
अगर उन्नत किस्म के बीजों की बुआई करीब 500 ग्राम की गई है, तो इससे औसतन 400 कुंतल प्रति हेक्टेयर की पैदावार हो सकती है।
जिसकी क़ीमत करीब 20 से 40 रुपए प्रति किलोग्राम है। वहीं देशी किस्म की कीमत 100 रुपए प्रति किलोग्राम तक होती है। परंतु इसका पैदावार कम होता है। 1 हेक्टेयर में आप औसतन 8 से 16 लाख की कमाई कर सकते हैं।
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