परिचय:- सोयाबीन एक खरीफ की फसल है। यह पोषण तथा स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है। इसमें कार्बोहाइड्रेट , वसा, प्रोटीन पाई जाती है। सोयाबीन भारत की महत्वपूर्ण तिलहनी और ग्रंथिय फसल है। यह खाद्य तेल आपूर्ति में भी महत्वपूर्ण है। इसके कृषी क्षेत्रमें काफी वृद्धि हुई है, परन्तु प्रति उत्पादन बढ़ाना अब भी अति आवश्यक है।
खाद्य तेल आपूर्ति और सोया खली निर्यात से सोयाबीन ने भारत देश की अर्थव्यवस्था को सुद्धढता प्रदान की है।
जलवायु:- सोयाबीन के लिए गर्म और नम जलवायु की आवश्यकता होती है, सोयाबीन के बीजों के अंकुरित होने के लिए लगभग 24 डिग्री सेल्सियस एवं फसल की बढोत्तरी के लिए लगभग 24 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान का आवश्यकता होती है। सोयाबीन की अच्छी फसल के लिए वार्षिक वर्षा 55 से 70 सेल्सियस होनी चाहिए।
उपयुक्त भूमि:- सोयाबीन की खेती के लिए जल निकासी वाली, नमकरहित, उपजाऊ मध्यम से थोड़ी भारी दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है।
फसल चक्र:- सोयाबीन की खेती फसल चक्रों में की जा सकती है, यह फायदेमंद भी है।
जैसे-सोयाबीन – गेहूं, सोयाबीन – चना, सोयाबीन – आलू, सोयाबीन – सरसों आदी प्रमुख है।
उन्नत किस्मों का चयन:- किसी फसल का अधिक उत्पादन लेने हेतुउन्नत किस्म की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। किसान को उन किस्मों का चयन करना चाहिए जो अधिक उत्पादन क्षमता से युक्त हो। जिनमें ज विपरीत परिथितियों में सामना करने की क्षमता होती हो।
हमारे देश के लिए उपयुक्त किस्मों इस प्रकार है–
उत्तर पहाड़ी क्षेत्र– हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड।
प्रमुख किस्में– शिलाजीत, पूसा- 16, वी एल सोया- 2, वी एल सोया- 47, हरा सोया, पालम सोया, पंजाब- 1, पी एस- 1241, पी एस- 1092, पी एस- 1347, वी एल एस- 59, वी एल एस- 63 आदि।
उत्तर मैदानी क्षेत्र– पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार।
प्रमुख किस्में– पी के- 416, पूसा- 16, पी एस- 564, एस एल- 295, एस एल- 525, पंजाब- 1, पी एस- 1024, पी एस- 1042, डी एस- 9712, पी एस- 1024, डी एस- 9814, पी एस- 1241, पी एस- 1347 आदि।
मध्य भारत क्षेत्र– मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तरी महाराष्ट्र, गुजरात।
प्रमुख किस्में– जे एस- 93-05, जे एस- 95-60, जे एस- 335, एन आर सी- 7, एन आर सी- 37, जे एस- 80-21, समृद्धि, एम ए यू एस- 81 आदि।
दक्षिणी क्षेत्र– दक्षिणी महाराष्ट्र, कर्नाटक, तामिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश।
प्रमुख किस्में– को- 1, को- 2, एम ए सी एस- 24, पूजा, पी एस- 1029, के एच एस बी- 2, एल एस बी- 1, प्रतिकार, फूले कल्याणी, प्रसाद आदि।
उत्तर पूर्वी क्षेत्र– बंगाल, छत्तीसगढ़, उतराखंड, उड़ीसा, असम, मेघालय।
प्रमुख किस्में– बिरसा सोयाबीन- 1, इंदिरा सोया- 9, प्रताप सोया- 9, एम ए यू एस- 71, जे एस- 80-21 आदि।
सोयाबीन के खेत की तैयारी।
खेत की तैयारी:- रबी फसल की कटाई के बाद मई के महीने में तीन वर्षों में एक बार गहरी जुताई करें। प्रत्येक वर्ष सामान्य जुताई करके खेत को खुला छोड देना चाहिए। ताकि उसमें रहने वाले हानिकारक कीट व सूक्ष्म जीवों और खरपतवारों का नाश हो सके। बुआई से पहले खेत को दो बार कल्टीवेटर अथवा हैरो चलाकर पाटा लगा देना चाहिए, ताकि खेत समतल हो जाए।
बुआई का समय:- सोयाबीन की खेती मुख्य रुप से खरीफ में होती है, रबी तथा जायद में भी कुछ क्षेत्रों में इसकी फसल की जा सकती है।
खरीफ के लिए जून जुलाई तथा रवि के लिए नवंबर के महीनें में इसकी रोपाई करें।तथा जायद के लिए मार्च का महीना उत्तम है।
बीज की मात्रा:- छोटा दाना- 60 से 65 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, मध्यम दाना- 70 से 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं मोटा दाना- 80 से 85 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
बीज का उपचार:- बुआई से पहले बीज को 2 ग्राम थिरम + 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलोग्राम के हिसाब से उपचारित कर लेना चाहिए। इसके बाद राईजोबियम और पी एस बी जीवाणु टीके से बीज को उपचारित करें। जीवाणु टीका की ठंडे गुड़ के घोल में मिलाकर बीज को उपचारित करने के बाद बीज को छाया में सुखाकर तुरन्त बुआई कर दें।
बुआई की विधि:- सोयाबीन की बुआई कतारों में करेें, कतार से कतार की दूरी उत्तर भारत के क्षेत्रों में 45 से 60 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सेंटीमीटर होनी चाहिए। बुआई 3 से 4 सेंटीमीटर गहराई पर करें।
पोषक तत्व प्रबंधन:- सोयाबीन से अच्छा उत्पादन लेने के लिए लगभग 5 से 10 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद, बुआई से लगभग 20 से 25 दिन पहले खेत में अच्छी तरह से मिला दे।
पोषक तत्वों की मात्रा ,नाइट्रोजन- 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, फास्फोरस- 60 से 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, पोटाश- 40 से 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं गन्धक- 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
खरपतवार प्रबंधन:- खरपतवारों का नियंत्रण।
फ्लुक्लोरोलिन या ड्राइफ्लोरालिन 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बुआई से पहले या पेन्डीमिथालीन 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर दें अथवा खरपतवार की दुबारा वृद्धि को नष्ट करने के लिए बुआई के 30 और 45 दिन बाद निराई -गुड़ाई करनी चाहिए।
जल प्रबंधन:- सोयाबीन में सिचांई की आवश्यकता मिट्टी के प्रकार, तापमान तथा वर्षा के ऊपर निर्भर करती है। अगर लम्बे समय तक वर्षा न हो तो सिंचाई करनी चाहिए।
कीट नियंत्रण तथा रोग प्रबंधन।
कीट नियंत्रण:- जिन स्थानों पर तना मक्खी से फसल की प्रारंभिक अवस्था में नुकसान होता है, वहाँ 7 से 10 दिन की फसल पर थायोमिथॉक्सम 25 डब्लू जी का 100 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
रोग प्रबंधन:- पत्तियों पर होने वाले रोग जैसे माइोथेसियम व सरकोस्पोरा पर्ण धब्बा रोग और राईजोक्टोनिया एरियल ब्लाइट की रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू पी या थायोफेनॅटमिथाइल 70 डब्ल्यू पी 0.5 किलोग्राम 700 से 800 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के 35 व 50 दिन बाद दो छिड़काव करें।
जीवाणुजनित फफोलों के लिए रोग होने पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2 किलोग्राम + स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 200 ग्राम प्रति 700 से 800 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
पीला मोजैक नियंत्रण के लिए थायोमिथॉक्साम 25 डब्ल्यू जी 200 ग्राम का 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर या मिथाइल डिमेटॉन का 0.8 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
रोली (गेरूआ) रोग नियंत्रण के लिए हेक्साकोनाजोल या प्रोपिकोनाजोल या ऑक्सीकार्बोक्सिन के 0.1 प्रतिशत की दर से दो या तीन छिड़काव करें, पहला छिड़काव रोग दिखाई देते ही व दूसरा छिड़काव 15 दिन बाद करें, अधिक रोली प्रभावित क्षेत्रों में उपरोक्त में से कोई एक कवकनाशी का बुआई के 35 से 40 दिन बाद बचाव हेतु एक छिड़काव करें।
कटाई और गहाई:- जब सोयाबीन की पत्तियों का रंग पीला तथा फलियों का रंग पीला या भूरा हो जाए तो फसल को काट लेना चाहिए, कटाई के बाद चार से पांच दिन तक खेत में ही सूखने देना चाहिए, ताकि दानों में नमी की मात्रा कम होकर 13 से 14 प्रतिशत हो जाए। फिर इसके बाद इसकी गहाई कर लेनी चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिए कि श्रेशर की गति 300 से 400 आर पी एम ही रखी जाए। अधिक गति पर सोयाबीन के बीजों को नुकसान होता है।
पैदावार:- अगर सही किस्म चुनकर सभी उपरोक्त सस्य विधियाँ की जाएं तो 20 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार हो सकती है।
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