तोरई की फसल तथा इसके व्यापारिक महत्व।

वैसे तो तोरई की खेती सम्पूर्ण भारत में की जाती है। लेकिन तोरई के उत्पादन में केरल, उड़ीसा, कर्नाटक, बंगाल और उत्तर प्रदेश अग्रणी है। यह सब्जी बेल पर उगती है, इसकी भारत में हर जगह बहुत मांग है।

परिचय:- वैसे तो तोरई की खेती सम्पूर्ण भारत में की जाती है। लेकिन तोरई के उत्पादन में केरल, उड़ीसा, कर्नाटक, बंगाल और उत्तर प्रदेश अग्रणी है, यह सब्जी बेल पर उगती है। इसकी भारत में हर जगह बहुत मांग है, यह अनेक प्रोटीनों के साथ स्वादिष्ट भी होती है। बढ़ती माँग को देखते हुए इसकी खेती की व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी उत्तम है। इसे अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे तोरी, तुराई, झींगा, झिंग्गी आदि।

जलवायु:- तोरई की अच्छी खेती के लिए उष्ण तथा नमीयुक्त जलवायु अच्छी मानी गई है, अंकुरण से बढ़वार तक 20 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापक्रम होना अवाश्यक है।

भूमि:- तोरई की खेती के लिए उचित जल निकास वाली जीवांश युक्त हलकी दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी गई है। जिसका पी एच मान 7 के आस-पास रहे, नदियों के किनारे की खेती इसके लिए उपयुक्त रहती है।

 तोरई की खेती के लिए उचित जल निकास वाली जीवांश युक्त हलकी दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी गई है। जिसका पी एच मान 7 के आस-पास रहे, नदियों के किनारे की खेती इसके लिए उपयुक्त रहती है।
तोरई की खेती

खेत की तैयारी:- पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करनी चाहिए। इसके बाद 2 से 3 बार कल्टीवेटर से मिट्टी को भुरभुरी बना लेना चाहिए, फिर पाटा के सहयोग से खेत को समतल बना लें।

उन्नत किस्में:- पंजाब सदाबहार, नसदार, सरपूतिया, एम ए 11, कोयंबुर-1, कोयंबुर-2, पी के एम-1 आदी।

बुआई का समय:- खरीफ़ में जून से जुलाई का समय उत्तम होता है, और ग्रीष्कालीन फसल के लिए मार्च को उपयुक्त माना गया है।

बीज की मात्रा:- 2.5 – 3 kg बीज का प्रयोग प्रति हेक्टेयर उपयुक्त रहता है।

बीज उपचार:- तोरई फसल को फफूंदी रोग के अत्यधिक नुकसान से बचाव हेतु बीज का उपचार आवश्यक है। थीरम या बाविस्टीन की 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करें।

तोरई की सिंचाई प्रबंधन एवं खरपतवार नियंत्रण।

खाद और उर्वरक:– जुताई के समय 200-250 क्विंटल गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर मिलाएं। 120 kg नाइट्रोजन, 100 kg फॉस्फोरस, 80 kg पोटाश प्रति हेक्टर की दर से दें।

 खरीफ़ के फसल में बरसात रहने के कारण, सिंचाई की आवश्यकता नही पड़ती है। बारिश न होने की सूरत में आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए। ग्रीष्कालीन फसल के लिए 5 से 7 दिन के अंतर से सिचाई करते रहें।
तोरई

सिंचाई प्रबंधन:- खरीफ़ के फसल में बरसात रहने के कारण, सिंचाई की आवश्यकता नही पड़ती है। बारिश न होने की सूरत में आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए। ग्रीष्कालीन फसल के लिए 5 से 7 दिन के अंतर से सिचाई करते रहें।

खरपतवार नियंत्रण:- खरपतवारों को निकाल कर नष्ट करते रहना आवश्यक है। बासालीन 48 ई सी 1.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर खरपतवार को प्रारंभ से 35 से 40 दिन तक नियंत्रण रखता है।

रोग एवं रोकथाम:- बरसात में फफूंदी रोग की संभावना अधिक होती है। इससे बचाव हेतु मेन्कोजेब या बाविस्टीन 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर हर 15 से 20 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।

किट एवं रोकथाम:- तोरई की फसल में लगने वाले किट लालड़ी, फल की मक्खी, सफ़ेद ग्रब आदि है। अच्छी फसल के लिए कीटों का नियंत्रण आवश्यक है। इसके लिए कार्बोसल्फान 25 ईसी 1.5 लीटर 900 – 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर 10 – 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।

फलों की तुड़ाई:- तोरई की फसल की तुड़ाई फलों के आकार को देखकर बाजार के भाव के आधार पर की जाती है।

पैदावार:- तोरई की उपज किस्म के चयन और खेती की तकनीक पर निर्भर है। यदि उन्नत विधि और उन्नत किस्म का चयन किया जाये तो प्रति हेक्टेयर 150 से 250 क्विंटल तक पैदावार मिलने की संभावना है।

फसलबाज़ार

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