उड़द की खेती तथा इसके व्यापारिक महत्व।

उड़द की फसल कम समय मे पककर तैयार हो जाती है। इसकी खेती खरीफ एवं रबी दोनों समय में की जाती है, लेकिन यह ग्रीष्म के लिये अधिक उपयुक्त फसल है। उड़द की दाल व्यंजन बनाने तथा इसकी दाल की भूसी पशु आहार के लिए उपयुक्त है। उड़द वायु मण्डल की नाइट्रोजन का उपयोग भूमि की उर्वरा शक्ति मे वृद्धि करने के लिए करते हैं।

उड़द एक महत्वपूर्ण भारतीय दलहन फसल है। औषधीय गुण होने के कारण यह गठिया तथा मानशिक रोग में लाभकारी है। हमारे धर्म ग्रंथो मे भी इसके गुणों का उल्लेख है। इसके व्यापारिक और औषधीय गुणों के कारण इसका उल्लेख “अर्थशास्त्र तथा चरक सहिंता” मे भी है। इसका उद्गम तथा विकास भारतीय उपमहाद्वीप मे ही पाया गया है।

उड़द की फसल कम समय मे पककर तैयार हो जाती है। इसकी खेती खरीफ एवं रबी दोनों समय में की जाती है, लेकिन यह ग्रीष्म के लिये अधिक उपयुक्त फसल है। उड़द की दाल व्यंजन बनाने तथा इसकी दाल की भूसी पशु आहार के लिए उपयुक्त है। उड़द वायु मण्डल की नाइट्रोजन का उपयोग भूमि की उर्वरा शक्ति मे वृद्धि करने के लिए करते हैं।

इसके अतिरिक्त उड़द की पत्तियाँ एवं जड़ भूमि मे कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाने में भी उपयोगी है। उड़द की फसल को हरी खाद के रूप मे भी प्रयोग में लाया जा सकता है।

उपयोगिता:- भारत में अधिकांश लोग शाकाहारी है। अतः प्रोटीन पूर्ति में दालो से होती है। उड़द की दाल मे सबसे अधिक प्रोटीन पाया जाता है।इसलिए  दाल का भोजन में महत्वपूर्ण स्थान है।  इसमे कई प्रकार के अन्य विटामिन एवं खनिज लवण भी पाये जाते है।

जलवायु:– उड़द की खेती हेतु नम एवं गर्म मौसम आवश्यक है। उड़द की विकास के लिये 25-30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त माना जाता है। 700-900 मिमी वर्षा वाले क्षेत्रो मे इसे सफलता पूर्वक उगाया जाता है। फूल की अवस्था पर अधिक वर्षा नुकसान पहुँचाता है। पकने के समय वर्षा होने पर दानें खराब हो जाता है।

भूमि का चुनाव एवं तैयारी:- उड़द की खेती अनेक प्रकार की भूमि मे जाती है। इसमें हल्की रेतीली, दोमट या मध्यम प्रकार की भूमि उत्तम मानी जाती है। जल निकास की अच्छी व्यवस्था उड़द के लिये अधिक उपयुक्त होती है। पी.एच. मान 7-8 के बीच वाली भूमि उड़द के लिये उत्तम मानी जाती है। वर्षा आरम्भ होने के पश्चात दो- तीन बार हल चलाकर खेत को समतल करे। वर्षा के सुरुआत से पहले बुआई करने से पौधो की बढ़वार अच्छी होती है।

उड़द एक महत्वपूर्ण भारतीय दलहन फसल है। औषधीय गुण होने के कारण यह गठिया तथा मानशिक रोग में लाभकारी है। हमारे धर्म ग्रंथो मे भी इसके गुणों का उल्लेख है। इसके व्यापारिक और औषधीय गुणों के कारण इसका उल्लेख
उड़द की खेती

बीज की मात्रा:– उड़द की बीज 6-8 Kg की दर से बोनी चाहिये। बुआई से पहले बीज को 3 ग्राम थायरम अथवा 2.5 ग्राम डायथेन एम-45 प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें।

बुआई का समय एवं तरीका:– मानसून के आगमन पर  पर्याप्त वर्षा होने पर बुआई करे। बुआई  कतारों में दूरी 30 सेंटीमीटर तथा पौधो से पौधो की दूरी 10 सेंटीमीटर बनाकर करें, तथा गहराई पर बोये।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा:– नत्रजन 8-12 kg और स्फुर 20-24 kg पोटाश 10 kg प्रति एकड़ के हिसाब से दे। खाद को बुआई के समय कतारो मे बीज के ठीक नीचे डालना चाहिये। दलहनी फसलो मे गंधक युक्त उर्वरक जैसे सिंगल सुपर फास्फेट, अमोनियम सल्फेट, जिप्सम आदि का उपयोग करें।

उड़द की सिंचाई एवं कीट प्रबंधन

सिंचाई:– फूल एवं दाना भरने के समय खेत मे नमी आवश्यक है, नमी न हो तो सिचाई करें।

निदाई-गुड़ाई:– खरपतवार फसलो को अधिक क्षति पहुँचाते है। अतः समय पर निदाई-गुड़ाई करना चाहिये। नींदानाशक वासालिन 800 मिली. से 1000 मिली. प्रति एकड़ 250 लीटर पानी मे घोलकर नमी युक्त खेत मे छिड़कने से अच्छे परिणाम मिलते है।

कीट प्रबंधन

क्ली वीटिक-(पिस्सू भृंग)– यह उड़द तथा मूंग का एक प्रमुख हानिकारक कीट है। भृंग रात्रि में पत्तियों पर छेद बनाकर क्षति पहुँचाते हैं। इससे उत्पादन में अत्यधिक कमी आती है। प्रौढ़ भृंग भूरे रंग के धारीदार होते हैं, जबकि भृंग मटमैले सफेद रंग के होते हैं।

पत्ती मोड़क कीट (इल्ली)- इल्लियां हरे रंग की तथा उसका सिर पीले रंग का होता है। यही इल्लियां कई पत्तियों को एकसाथ चिपका कर जाला बनाती है। इल्लियां इन्हीं मुड़े भागों के अन्दर रहकर पत्तियों के क्लोरोफिल को खा जाती हैं, जिससे पत्तियां पीली सफेद पड़ने लगती है।

सफेद मक्खी- इस कीट के प्रौढ़ एवं शिशु दोनों ही हानिकारक हैं। यह हल्का पीलापन लिए हुए सफेद रंग के होते हैं। शिशु को पंख नहीं होता, प्रौढ़ को पंख होता है।

पत्तियां भेदक इल्लियां– विभिन्न प्रकार की इल्लियां उड़द व मूंग की पत्तियों को क्षति पहुंचती हैं।जिससे उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसमें बिहार रोमिल इल्ली, लाल रोमिल इल्ली, तम्बाकू, इल्ली अर्द्ध गोलाकार इल्ली आदि हैं। बिहार रोमिल इल्ली प्रमुख रूप से हानिकारक है।

रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग

कीटनाशी रसायन का घोल बनाते समय उसमें चिपचिपा पदार्थ जरूर मिलाएं ताकि वर्षा का जल कीटनाशक पत्ती व पौधे पर से घुलकर बहा न दे। कीटों में प्रतिरोधकता रोकने के लिए हर मौसम में अलग-अलग कीटनाशको का उपयोग करें।

कीटनाशी रसायन का घोल बनाते समय उसमें चिपचिपा पदार्थ जरूर मिलाएं ताकि वर्षा का जल कीटनाशक पत्ती व पौधे पर से घुलकर बहा न दे। कीटों में प्रतिरोधकता रोकने के लिए हर मौसम में अलग-अलग कीटनाशको का उपयोग करें।
उड़द

प्रमुख रोग एवं प्रवंधन

1. पीला चित्तेरी रोग– इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में पत्तियों पर धब्बे दिखाई पड़ते हैं। यही धब्बे बड़े होकर पूरी पत्ती पर फैल जाते हैं। जिससे धीरे- धीरे पूरा पौधा पीला पड़ जाता है। यदि यह रोग आरंभ में लग जाए तो उपज में शतप्रतिशत हानि संभव है। यह रोग सफेद मक्खी जो चूसक कीट है के द्वारा फैलता है।

2. झुर्रीदार पत्ती रोग– यह भी एक विषाणु रोग है। इस रोग के लक्षण बोने के चार सप्ताह बाद दिखाई पर जाते हैं। यह पौधे की तीसरी पत्ती पर दिखाई पड़ते हैं। पत्तियाँ सामान्य से अधिक वृद्धि तथा झुर्रियां या मड़ोरपन लिये हुये तथा खुरदरी होने लगती है। फसल पकने तक भी इस रोग में पौधे हरे ही रहते हैं।

3. पर्ण कुंचन– यह रोग प्रारम्भिक अवस्था से लेकर पौधे की अंतिम अवस्था तक हो सकता है। प्रथम लक्षण सामान्यतः तरूण पत्तियों के किनारों पर प्रकट होता है। संक्रमित पत्तियों के सिरे नीचे की ओर कुंचित हो जाते हैं , उंगली द्वारा थोड़ा झटका दिया जाने पर यह ढंठल सहित नीचे गिर जाती है। यह भी विषाणु से फैलती है।

4. सरकोस्पोरा पत्ती बुंदकी रोग– पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे हो जाते हैं। यह धब्बे पौधे की शाखाओं एवं फलियों पर भी पड़ने लगते हैं। अनुकूल परिस्थितियों में यह धब्बे बड़े आकार के हो जाते हैं तथा पुष्प होने एवं फलियाँ बनने के समय रोग ग्रसित पत्तियाँ गिर जाती हैं।

5. श्याम वर्ण– यह एक फफूंद से होने वाली बीमारी है। बीमारी के लक्षण पौधे के सभी भागों पर वृद्धि की किसी भी अवस्था में देखे जा सकते हैं। पत्तियों और फलियों पर हल्के भूरे से गहरे भूरे और काले रंग के वृत्ताकार धब्बे दिखाई पड़ते हैं। धब्बों के मध्य भाग गहरे रंग दिखता है । धब्बे के किनारे हल्के लाल रंग के होते हैं। रोग बढ़ पर रोगी पौधा मुरझाकर मर जाता है। यदि बीज के अंकुरण होने पर शुरू में ही रोग का प्रकोप हो जाता है तो बीजोकुट झुलस जाता है।

भण्डारण तथा कीटो का प्रबंधन

भण्डारण के प्रमुख कीट

दालो का घुन– इस कीट का प्रकोप खेत और भण्डार गृह दोनो जगहों पे होता है। यह भण्डार गृह मे ज्यादा नुकसान देता है। इसके ग्रव तथा प्रौढ़ कीट दोनो ही नुकसान पहुँचाते हैं। अण्डो से निकलने के बाद ग्रव फली मे छेद करके अंदर घुस जाता है, तथा दानो को अंदर से खाता है।

दानो के अंदर ग्रव जिस जगह से घुसता है।वह बंद हो जाता है और दाना बाहर से बिलकुल स्वस्थ दिखता है। इस प्रकार ग्रसित दानों के साथ कीट भण्डार गृहो मे प्रवेश कर जाती है। वहाँ पर प्रौढ़ बनकर निकलता है जो कि प्रजनन शुरू कर देता है।

लाल सुरही – इस कीट की ग्रव व प्रौढ़ दोनो ही नुकसान पहुँचाने वााले है। परंतु प्रौढ़ सूण्डी की अपेक्षा अधिक हानिकर होता है। प्रौढ़ दानो मे टेढ़ मेढ़े छेद करके दानों को खाकर आंटे मे बदल देते है। जिससे केवल भूसी और आटा ही बचता है, ये खाते कम है और नुकसान अधिक पहुँचाते है।

भण्डारण के प्रमुख कीटो का प्रबंधन:- जहाँ तक संभव हो गोदाम पक्का रखें एवं उनकी दीवारें नमी विरोधी होना चाहिये। नये बोरो को प्रयोग मे लाना चाहिये। यदि बोरे पुरानें हो तो उन्हें कम से कम 15 मिनट तक उबलते पानी मे डुबोकर सुखाकर प्रयोग मे लाना चाहिये। मैलाथियान घोल मे 10 मिनट तक डुबोकर सुखाकर प्रयोग मे लाये।

दालो को सुरक्षित रखने हेतु एक भाग दाल मे 3/4 भाग राख का मिलाये। दालो को कड़ी धूप मे अच्छी तरह सुखा लेने से नमी 8-10 प्रतिशत रह जाती है। यदि दालो को बोरियो मे भरकर रखना हो तो पर्याप्त मात्रा मे भूसे की तह बिछा दें, तथा बोरो को दीवार से 50 सेमी की दूरी पर रखें।

भण्डार के लिये पूसा बिन, आर.सी. कोटी, पंतनगर कुठला, हापुड़ बिन, जी.आई. कोठी का उपयोग करे। बोरियो के ढेर की ऊँचाई 3 मीटर से अधिक ना हो।

सामान्य परिस्थिति में उड़द की उपज (क्वि/हे.) – 10 क्विंटल /हे.
शुद्ध लाभ (रू./हे.) -26698
लाभ-लागत अनुपात – 2.40

फसलबाज़ार

15 thoughts on “उड़द की खेती तथा इसके व्यापारिक महत्व।

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