परिचय:- कलौंजी अथवा मंगरैला की खेती मुख्य रूप से व्यापारिक फसल के रूप में किया जाता है। यह भोजन में पौष्टिकता के साथ-साथ औषधीय गुणों से भी भरपूर होता है। इसके बीज अत्यंत छोटे तथा काले होते हैं। इसे अलग-अलग स्थान पे अलग-अलग नामों से जाना जाता है।
उपयुक्त मिट्टी:- कलौंजी या मंगरैला की खेती के लिए जीवाश्म युक्त बलुई दोमट सबसे उपयुक्त होती है। उत्तम जल निकास वाली भूमि जिसका पी. एच. मान 6-7 के बीच होना चाहिए। इसकी खेती पथरीली भूमि में नही की जा सकती।
जलवायु और तापमान:- यह उष्णकटिबंधीय जलवायु की फसल है। इसकी खेती के लिए सर्दी तथा गर्मी दोनों की समान रूप से आवश्यकता होती है।
पौधे को विकास करने के लिए ठंड और पकने के दौरान तेज़ गर्मी की आवश्यकता होती है। भारत में इसकी खेती ज्यादातर रबी की फसल में की जाती है, इसे अधिक बारिश की जरूरत नही होती।
इसके बीजों के अंकुरण के लिए सामान्य तापमान तथा विकास के लिए 18 डिग्री के आस-पास का तापमान उपयुक्त होता है। फसल के पकने के दौरान तापमान 30 डिग्री के लगभग होना आवश्यक है।
उन्नत किस्में
कलौंजी की कई उन्नत किस्में होती हैं।
एन. आर. सी. एस. एस. ए. एन. –1 – इस किस्म के पौधे की लम्बाई दो फिट के आस-पास पाई जाती है। रोपाई के लगभग 135 से 140 दिन बाद कटाई तथा प्रति हेक्टेयर उत्पादन 8 क्विंटल के आस-पास पाया जाता है।
आजाद कलौंजी – कलौंजी की इस किस्म का उत्पादन प्रति हेक्टेयर 10 से 12 क्विंटल तक पाया जाता है। यह रोपाई के लगभग 140 से 150 दिन बाद पक कर तैयार हो जाते हैं।
पंत कृष्णा – कलौंजी की इस किस्म के पौधे की लम्बाई दो से ढाई फिट होती है। रोपाई के 130 से 140 दिन बाद कटाई के लिए तैयार इस पौधे का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 8 से 10 क्विंटल के आस-पास पाया जाता है।
खेत की तैयारी:- कलौंजी (मंगरैला) की खेती के लिए खेत की अच्छे से सफाई कर दो से तीन तिरछी जुताई कर दें। उसके बाद खेत में अंतिम जुताई के साथ खेत मे उचित मात्रा में पुरानी गोबर की खाद डालकर मिला दें।
पलेवा के बाद खेत की मिट्टी सूखने पर रोटावेटर की सहायता से जुताई कर, पाटा चलाकर मिट्टी को समतल बना लें।
बीज रोपाई, तकनीक और समय:- कलौंजी की बुआई बीज के माध्यम से की जाती है। खेत में उचित आकार वाली क्यारी तैयार कर उनमें बीज की रोपाई की जाती है।
बीजों की रोपाई खेत में छिटकवा विधि से की जाती है। एक हेक्टेयर भूमि के लिए 7 किलो बीज की मात्रा पर्याप्त है, बीज को बुआई से पहले थीरम से उपचारित कर ले।
कलौंजी की बुआई रबी की फसलों के साथ ही की जाती है। इसकी रोपाई मध्य सितम्बर से मध्य अक्टूबर तक की जाती है।
कलौंजी (मंगरैला) की सिंचाई, रोग एवं रोकथाम।
सिंचाई:- कलौंजी के पौधों को सामान्य सिंचाई की आवश्यकता होती है। प्रथम सिंचाई बीजों को खेत में लगाने के तुरंत बाद कर देनी चाहिए।
दूसरी सिंचाई बीजों के अंकुरित होने तक नमी के आधार पर हल्की सिंचाई देनी चाहिए। पौधे के विकास के दौरान 15 से 20 दिन के अंतराल में सिंचाई की आवश्यकता परती है।
उर्वरक की मात्रा:- कलौंजी के पौधे को उर्वरक की आवश्यकता बाकी फसलों की तरह ही होती है। प्रारंभ में खेत की जुताई के वक्त लगभग 10 से 12 गाडी सरी हुई गोबर की खाद तथा रासायनिक खाद के रूप में दो से तीन बोर एन.पी.के. प्रति हेक्टेयर को खेत में आखिरी जुताई के वक्त देनी चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण:- खरपतवार नियंत्रण नीदाई-गुड़ाई बीज रोपाई के लगभग 20 से 25 दिन बाद देनी चाहिए। दो से तीन गुड़ाई इसकी खेती के लिय पर्याप्त है, पहली गुड़ाई के बाद बाकी की गुड़ाई 15 दिन के अंतराल में करना उत्तम होता है।
रोग एवं रोकथाम
कटवा इल्ली – यह रोग पौधे के अंकुरण के बाद किसी भी अवस्था में लग सकता है। इस रोग से पौधा बहुत जल्द खराब हो जाता है। रोग का प्रकोप दिखाई देने पर क्लोरोपाइरीफास की उचित मात्रा का छिड़काव जड़ो में करें।
जड़ गलन – यह रोग जल जमाव के कारण होता है। रोकथाम के लिए पौधों में जल जमाव की स्थिति ना होने दे।
पौधों की कटाई:- सामान्यतः कलौंजी रोपाई के लगभग 130 से 140 दिन बाद पक-कर तैयार हो जाते हैं । पौधों को जड़ सहित उखाड़ने के बाद उसे कुछ दिन तेज़ धूप में सूखा देते हैं। फिर लकड़ियों से पीट कर दानो को निकाल लिया जाता है।
पैदावार और लाभ:- कलौंजी की औसतन पैदावार 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से पाई जाती है। जिसका भाव 20 हज़ार प्रति क्विंटल के आस-पास पाया जाता है।