सौंफ की उन्नत खेती, पैदावार एवं व्यापारिक महत्व।

सौंफ एक प्रमुख मसाला फसल है। व्यावसायिक रूप से इसकी खेती वर्षीय जड़ी बूटी के रूप में की जाती है। खाद्य के रूप में इसका उपयोग अचार बनाने तथा सब्जियों में जयका बढाने में किया जाता है।

परिचय:- सौंफ एक प्रमुख मसाला फसल है, व्यावसायिक रूप से इसकी खेती वर्षीय जड़ी बूटी के रूप में की जाती है। खाद्य के रूप में इसका उपयोग अचार बनाने तथा सब्जियों में जयका बढाने में किया जाता है।

सौंफ का उपयोग त्रिदोष नाशक औषधि के रूप में भी किया जाता है। इसकी औषधीय गुणों के कारण इसे भोजन के पश्चात मुखसुद्धि के रूप में लिया जाता है। इसे देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है।

सौंफ का उपयोग त्रिदोष नाशक औषधि के रूप में भी किया जाता है। इसकी औषधीय गुणों के कारण इसे भोजन के पश्चात मुखसुद्धि के रूप में लिया जाता है। इसे देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है।
सौंफ

उपयुक्त जलवायु:- सौंफ की अच्छी उपज हेतु शुष्क और ठण्डी जलवायु उत्तम होती है। अंकुरण के लिए 20 से 29 डिग्री सेल्सियस है, तथा बढ़वार 15 से 20 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त है।

फसल के पुष्पन अथवा पकने के समय आकाश में लम्बे समय तक बादल तथा हवा में अधिक नमी झुलसा बीमारी तथा माहू कीट के प्रकोप का कारण बन सकता है।

भूमि का चयन:- रेतीली मिट्टी को छोड़कर सौंफ सभी तरह की मिट्टी में उगाई जा सकती है। इसकी खेती के लिए जैविक गुणों से भरपूर उपजाऊ तथा अच्छी जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम होती है, जिसका पी एच मान 6.6-8.0 के बीच होना चाहिए।

भूमि की तैयारी:- सबसे पहले एक या दो जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। उसके बाद 2 से 3 जुताई देशी हल या हैरो से फिर पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी करके खेत को अच्छी तरह से तैयार कर सुविधानुसार क्यारियां बना लेनी चाहिए।

उन्नत किस्में:- सौंफ की अच्छी उपज के लिए उन्नत किस्मों का चयन करना आवश्यक है, कुछ उत्तम किस्में इस प्रकार हैं।

आर एफ- 105, आर एफ- 125, पी एफ- 35, गुजरात सौंफ- 1, गुजरात सौंफ- 2, गुजरात सौंफ- 11, हिसार स्वरूप, एन आर सी एस एस ए एफ- 1, को- 11, आर एफ 143 और आर एफ- 101 आदि प्रमुख है।

बुआई का समय:- सौंफ की बुआई रबी की शुरूआत में करना अधिक उपज के लिए लाभदायक होता है। इसे सीधा खेत में या पौधशाला में पौध तैयार कर रोपाई भी की जा सकती है।

बुआई विधि के लिए अक्टूबर का प्रथम सप्ताह सर्वोत्तम होता है, जबकि नर्सरी विधि से बोने पर नर्सरी में बुआई जुलाई से अगस्त माह में की जाती है। 45 से 60 दिन के बाद पौध रोपाई हेतु तैयार हो जाता है।

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सौंफ की सिंचाई व्यवस्था, खाद एवं उर्वरक

बीज दर:- बीज द्वारा बुआई करने पर 8 से 10 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर, नर्सरी विधि में 2.5 से 3.0 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है।

बीजोपचार:- बीज जनित रोगों से बचाव के लिए बुआई से पूर्व बीज को उपचारित कर लेना चाहिए। इसके लिए गोमूत्र अथवा बाविस्टीन दवा 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपयोग किया जा सकता है।

बुआई की विधि

बीज से सीधी बुआई – इस विधि में बीज क्यारियों में छिटककर या 45 सेंटीमीटर दूर कतारों में बोते हैं। बीजों को छिटकने के बाद दंताली या रेक की सहायता से 2.0 सेंटीमीटर गहराई तक मिट्टी से ढक देते हैं।

कतार विधि – इस विधि में 45 सेंटीमीटर की दूरी पर लाइनें खींच देते हैं तथा 2 सेंटीमीटर गहराई बुआई करके तुरन्त पानी दे दिया जाता है। सौंफ के बीजों को भिगोकर बोने से अंकुरण शीघ्र होता है।

रोपण विधि – इस विधि में नर्सरी में तैयार पौध की रोपाई जुलाई माह में करते हैं।

खाद एवं उर्वरक:- पिछली फसल में गोबर की खाद या कम्पोस्ट डाली गई है, तो सौंफ की फसल में अतिरिक्त खाद की आवश्यकता नहीं होती है । ऐसा नहीं होने पर जुताई के पहले 10 से 15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिला दे।

इसके बाद 90 किलोग्रान नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 40 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर पर्याप्त है।

नत्रजन की आधी मात्रा को फास्फोरस और पोटाश के साथ खेत की आख़िरी जुताई के समय तथा शेष नत्रजन की मात्रा दो भाग में बुआई के 60 दिन बाद तथा 90 दिन बाद देना उत्तम है।

पाले से फसल आसानी से प्रभावित हो जाता है। इस अवस्था में फसल को भारी नुकसान हो सकता है। पाले की संभावना होने पर सिंचाई करनी चाहिए तथा मध्य रात्रि के बाद खेत में धुंआ करके फसल को पाले से बचाया जा सकता है।
सौंफ की खेती

सिंचाई व्यवस्था:- सौंफ की फसल को अधिक सिंचाईयों की आवश्यकता है। मृदा में नमी की मात्रा कम होने पर बुआई या रोपाई के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए।

पहली सिंचाई के 8 से 10 दिन बाद दूसरी सिंचाई करें। इसके बाद मौसम के अनुसार 10 से 20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए।

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खरपतवार नियन्त्रण, रोग एवं रोकथाम

खरपतवार नियन्त्रण:- सौंफ की बढ़वार धीमी गति से होती है। इसलिए फसल को खरपतवारों द्वारा होने वाली हानि से बचाने के लिए कम से कम दो या तीन बार निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है।

प्रथम निराई 25 से 30 दिन बाद तथा दूसरी 60 दिन बाद करनी चाहिए। पहली निराई-गुड़ाई के समय आवश्यकता से अधिक पौधों को निकाल दें तथा कतारों में की गई बुआई वाली फसल में पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर कर देनी चाहिए।

रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालिन 1.0 किलोग्राम अंकुरण से पूर्व 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर मिट्टी पर छिड़काव करें।

प्रमुख रोग एवं रोकथाम

कॉलर रॉट – यह रोग जल जमाव वाले क्षेत्रों में अधिक दिखाई देता है। इसमें पौधों का कॉलर हिस्सा (जड़ के ऊपर) सड़ जाता है।

नियंत्रण के लिए 1.0 प्रतिशत बोर्डो मिश्रण (3:3:50) का छिड़काव करें।

रेमुलेरिया झुलसा – यह बीमारी रेमुलेरिया फोइनीकुली नामक कवक के कारण होती है। प्रारंभिक अवस्था में नियंत्रण के लिए जेड- 78 के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए।

छाछ्या – इस रोग का प्रकोप फरवरी से मार्च के महीने में अधिक रहता है।

नियंत्रण के लिए 20 से 25 किलोग्राम गंधक के चूर्ण का प्रयोग करें।

प्रमुख कीट:- मोयला (माहू), बीज ततैया, कर्तन कीट।

सौंफ का पाले से बचाव:- पाले से फसल आसानी से प्रभावित हो जाता है। इस अवस्था में फसल को भारी नुकसान हो सकता है। पाले की संभावना होने पर सिंचाई करनी चाहिए तथा मध्य रात्रि के बाद खेत में धुंआ करके फसल को पाले से बचाया जा सकता है।

फसल की कटाई:- फसल की कटाई आवश्यक उत्पाद के हिसाब से की जाती है। उत्तम किस्म की चबाने के काम आने वाली लखनवी सौंफ छत्रकों को परागण के 30 से 40 दिन बाद तथा उत्तम गुणवत्ता वाली सौंफ पैदा करने के लिए दानों के पूर्ण विकसित होते ही कटाई कर लेनी चाहिए। कटे हुए छत्रकों को छाया में सुखाने के बाद मंडाई और औसाई करके बीजों को अलग कर ले।

पैदावार:- उत्तम विधि अपनाकर औसतन 15 से 23 क्विंटल प्रति हैक्टर सौंफ की उपज प्राप्त की जा सकती है।

फसलबाज़ार

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