कुटीर उद्योग उन उद्योगों को कहा जाता है। जिसमें कुशल कारीगर उत्पाद का उत्पादन अपने घर में ही करता है। भारत में पूर्व से हीं यह प्रथा चली आ रही है। कारखानों की नौकरियों की तरफ आकर्षित होने के कारण कुटीर उद्योगों का तेजी से विनाश हुआ। जिसके फलस्वरूप कुशल कारीगरी की भी कमी हुई तथा लोग गाँवो को छोड़ शहर की तरफ़ पलायन करने लगे।
प्रकार:-
इस उद्योग को स्थान के हिसाब से दो भागों में बांटा गया है।
- नगरीय कुटीर उद्योग।
- ग्रामीण कुटीर उद्योग।
नगरीय कुटीर उद्योग के दो प्रकार हैं:- किंचित नगरीय एवं शहरी कुटीर उद्योग।
किंचित नगरीय कुटीर उद्योग के अंतर्गत परंपरागत कारीगरी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसमें कुशलता एवं कारीगरी का अनूठा संगम होता है। जैसे वाराणसी के ज़री का कार्य, लखनऊ का चिकन, जयपुरी रजाई इत्यादी।
शहरी कुटीर उद्योग स्वयं को समय के साथ परिवर्तन करते रहता है जिससे ये आधुनिक यांत्रिक उद्योगों की समानता कर सके। जैसे मदुरै का हथकरघा उद्योग। खादी वस्त्र निर्माण आदी।
ग्रामीण कुटीर उद्योग को भी दो भागो में बांटा गया है:- कृषि आधारित एवं अन्य कुटीर उद्योग।
कृषि आधारित उद्योग एवं विकास
लेकिन इन कार्यो में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, अब ग्रामीण छेत्रों में भी लोग सिर्फ परंपरागत वस्तुओं के उपयोग से आगे निकल चुके हैं। अर्थात शहरी उद्योगों का भी विकास गाँव में संभव है।
इस उद्योग का विनाश वहाँ निर्मित वस्तुओं के उपेक्षा के कारण हुआ है। मशीनों के आ जाने से सस्ती कीमतों पर वस्तुओं के विकल्प का उपलब्धता के कारण भी है।
विकास:- इसके विकास के लिए सबसे अधिक आवश्यक है राजनैतिक समर्थन और सामाजिक समर्थन।
राजनैतिक समर्थन से हमारा तात्पर्य है सरकार द्वारा उचित सुविधा देना तथा दी जा रही सुविधाओं का लाभ उचित लोगों तक पहुँचाना। तथा सामाजिक समर्थन से मतलब है क्रेताओं से, अर्थात ये जो कुटीर उद्योग वाले होते हैं।
ये अपने वस्तुओं का व्यापार भी अपने समाज में ही करते हैं। तो उनके क्रेताओं को चाहिए की वो अधिक से अधिक उनको लाभ पहुँचाने की कोशिश करें।
संभावनाएं:-
बदलते परिदृश्य में लोगों का शहरों से जिसप्रकार मोह भंग हो रहा है। और प्रवासी लोगों का जिस प्रकार प्रस्थान हो रहा है। कुटीर उद्योग को एक बहुत बड़ी संभावना के रूप में देखा जा रहा है।