रागी की उन्नत खेती तथा उपयुक्त किस्में।

रागी, इसे अनेक क्षेत्रों में मरुआ के नाम से भी जाना जाता है। इसमें प्रचुर मात्रा में कैल्सियम पायी जाती है। जिसका उपयोग करने पर हड्डियां मजबूत होती है।

परिचय:- रागी, इसे अनेक क्षेत्रों में मरुआ के नाम से भी जाना जाता है। इसमें प्रचुर मात्रा में कैल्सियम पायी जाती है। जिसका उपयोग करने पर हड्डियां मजबूत होती है।

प्रोटीन, वसा, रेषा व कार्बोहाइड्रेट से भरपूर रागी बच्चों एवं बड़ों दोनों के लिये उत्तम आहार है। कैल्सियम व अन्य खनिज तत्वों की भरपूर मात्रा होने के कारण ओस्टियोपोरोसिस से संबंधित बीमारियों तथा बच्चों के आहार (बेबी फुड) में रागी अत्यंत लाभदायक है।

यदि किसान का बीज उपयोग में ला रहे हों तो बुआई से पहले बीज साफ करके फफूंदनाषक दवा (कार्वेन्डाजिम/कार्वोक्सिन/क्लोरोथेलोनिल) से उपचारित करके बोयें। रागी की बुआई सीधी या रोपा पद्धति की जाती है।
रागी

खेत की तैयारी:- ग्रीष्म ऋतु में मिट्टी की एक से दो गहरी जुताई करें तथा खेत से पूर्व फसलों एवं खरपतवार के अवशेष एकत्रित करके नष्ट कर दें। कुछ दिनों के लिए मानसून प्रारम्भ होते ही खेत की एक या दो जुताई करके पाटा लगाकर समतल कर लें।

उन्नत किस्में

रागी की विभिन्न अवधि वाली कुछ उन्नत किस्में।

जी.पी.यू. – 45 – यह रागी की जल्दी पकने वाली किस्म है। इसकी उपज क्षमता 27 से 29 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है, यह किस्म झुलसन प्रतिरोधी है।

चिलिका (ओ.ई.बी. – 10) – यह देर से पकने वाली किस्म है, इसके पकने की अवधि 120 से 125 दिन तथा उपज 26 से 27 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह झुलसन के लिये मध्यम प्रतिरोधी तथा तना छेदक के लिये प्रतिरोधी है।

शुव्रा (ओ.यू.ए.टी. – 2) – पौधे 80-90 से.मी. ऊंचे होते है तथा औसत उत्पादक क्षमता 21 से 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।

भैरवी (बी.एम. 9-1) – यह मध्य प्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़, उड़ीसा, कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा आंध्रप्रदेष के लिये भी उपयुक्त है। उत्पादन क्षमता 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।

व्ही.एल. – 149 – यह किस्म इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह आंध्रप्रदेष व तमिलनाडु को छोड़कर देष के सभी मैदानी एवं पठारी भागो के लिए उपयुक्त है। इसके पकने की अवधि 98 से 102 दिन तथा उपज 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म झुलसन प्रतिरोधी है।

रागी की निदाई-गुड़ाई, खाद एवं उर्वरक।

बीज:- बीज का चुनाव मिट्टी की किस्म के आधार पर जाँच करके करें। प्रमाणित बीज का प्रयोग सर्वोत्तम है।

यदि किसान का बीज उपयोग में ला रहे हों तो बुआई से पहले बीज साफ करके फफूंदनाषक दवा (कार्वेन्डाजिम/कार्वोक्सिन/क्लोरोथेलोनिल) से उपचारित करके बोयें। रागी की बुआई सीधी या रोपा पद्धति की जाती है।

बीज बोने का उचित समय:- सीधी बुआई के लिए जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई मध्य तक का समय उत्तम है। बुआई छिंटवा विधि या कतारों में की जाती है।

कतार में बुआई के हेतु बीज 8 से 10 किलो प्रति हेक्टेयर तथा छिंटवा पद्धति के लिए 12-15 किलो प्रति हेक्टेयर आदर्श है।

कतार पद्धति से बुआई हेतु नर्सरी में बीज जून के मध्य से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक डाल दें, ताकी समय पर बीज रोपाई हेतु तैयार रहे। दो कतारों के मध्य दूरी 22.5 से.मी. एवं पौधे से पौधे के मध्य दूरी 10 से.मी. रखे।

खाद एवं उर्वरक:- मृदा परीक्षण के आधार पर हीं उर्वरकों का प्रयोग करें। सामान्य परिस्थिति में , 40 किलो नत्रजन व 40 किलो फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से दी जा सकती है।

नेत्रजन की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा बोआई से पहले तथा नत्रजन की शेष मात्रा अंकुरण के 3 सप्ताह बाद प्रथम निदाई के पश्चात समान रूप से डालें।

रागी की फसल को प्रथम 45 दिन तक खरपतवारों से मुक्त रखना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा उपज में भारी गिरावट आ जाती है।
रागी की खेती

निदाई-गुड़ाई:- रागी की फसल को प्रथम 45 दिन तक खरपतवारों से मुक्त रखना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा उपज में भारी गिरावट आ जाती है।

अतः समय-समय पे निदाई-गुड़ाई आवश्यक है। पहली निदाई बुआई या रोपाई के 3 सप्ताह के अंदर करें।

रासायनिक विधि से नियंत्रण हेतु 2-4 डी. सोडियम साल्ट (80 प्रतिषत) की एक कि.ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करके चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार नष्ट कर सकते है। बालियां निकलने से पहले हाथ से एक और निदाई करें।

फसल पद्धति, पौध संरक्षण तथा रोकथाम।

फसल पद्धति:- रागी की 8 कतारों के बाद दो कतारों में अरहर का बोना बहुत लाभदायक पाया गया है।

पौध संरक्षण

झुलसन – रागी की फसल पर अंकुरण के कुछ दिनों बाद से लेकर बालियों में दाने बनने तक फफूंदजनित झुलसन रोग का प्रकोप हो सकता है। जिसके कारण उपज की गुणवत्ता व मात्रा प्रभावित होती है।

रोकथाम – बोआई पूर्व बीजों को मेनकोजेव, कार्वेन्डाजिम या कार्वोक्सिन या इनके मिश्रण से उपचारित करें।

खड़ी फसल पर लक्षण दिखायी पड़ने पर कार्वेन्डाजिम, मेनकोजेव 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से छिड़काव करें। 10 से 12 दिन के बाद एक छिड़काव फिरसे करें। रोग प्रतिरोधी किस्मों का चुनाव करें।

भूरा धब्बा रोग – यह फफूंदजनित रोग है। इसका संक्रमण पौधे की सभी अवस्थाओं में हो सकता है। संक्रमण होने पर दानों का उचित विकास नहीं हो पाता, दाने सिकुड जाते है।

रोकथाम – उपरोक्त विधि अपनाएं।

कीट – तना छेदक एवं बालियों की सूड़ी रागी की फसल के प्रमुख कीट है।

तना छेदक – इसका वयस्क कीट एक पतंगा होता है। वहीं लार्वा तने को भेदकर अन्दर प्रवेष कर जाता है एवं फसल को नुकसान पहुँचाता है।

रोकथाम – डाइमेथोऐट या फास्फोमिडान या न्यूवाक्रान दवा 1 से 1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।

बालियों की सूड़ी – इस कीट का प्रकोप दाने बनने के समय होता है। भूरे रंग की रोयेंदार इल्लियां रागी की बंधी बालियों को नुकसान पहुंचाती है।

रोकथाम – क्विनालफास (1.5 प्रतिषत) या थायोडान डस्ट (4 प्रतिषत) का प्रयोग 24 कि. प्रति हेक्टेयर की दर से करें।

उपरोक्त विधि को अपना कर रागी की अच्छी खेती की शुरुआत की जा सकती है।

फसलबाज़ार

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